ग़ज़ल
देखता हूँ मैं अक्सर गौर से जमाने को.........
-अरुण मिश्र
देखता हूँ मैं अक्सर, गौर से जमाने को।
हँस के दिल लगाने को, फिर फ़रेब खाने को॥
दिल पे चोट लगती है,फिर भी दिल मचलता है।
मीठे-मीठे वादे को , दिलशिकन बहाने को॥
इन नज़र के तीरों की , माना है बहुत शोहरत।
मैं ही क्या मिला तुझको , तीर आज़माने को??
देख इन शरीफों को, किसका मन नहीं मचले?
कीच में लिपटने को, इत्र में नहाने को॥
इन्तजामे - कुदरत है, दाँत दो तरह के हैं।
ढेर सारे खाने को , एक - दो दिखाने को॥
पाप की बहे गंगा , आदमी खड़ा नंगा।
हैं यहाँ सभी आतुर , डुबकियाँ लगाने को॥
आप'अरुन' दुनिया में,किसको समझिये अपना।
ढेर सारे खाने को , एक - दो दिखाने को॥
पाप की बहे गंगा , आदमी खड़ा नंगा।
हैं यहाँ सभी आतुर , डुबकियाँ लगाने को॥
आप'अरुन' दुनिया में,किसको समझिये अपना।
शुक्रिया मगर कहिये, इस यतीमखाने को॥
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