मंगलवार, 8 मई 2012

देखता हूँ मैं अक्सर गौर से जमाने को..........

ग़ज़ल

देखता हूँ मैं अक्सर गौर से जमाने को......... 

-अरुण मिश्र   


देखता   हूँ   मैं   अक्सर,  गौर  से   जमाने  को।
हँस  के  दिल लगाने को, फिर  फ़रेब  खाने को॥


दिल पे चोट लगती है,फिर भी दिल मचलता है। 
मीठे-मीठे  वादे  को ,   दिलशिकन   बहाने  को॥


इन  नज़र  के तीरों की , माना है  बहुत शोहरत।
मैं ही क्या  मिला  तुझको , तीर  आज़माने को??


देख इन शरीफों  को,  किसका मन नहीं मचले?
कीच   में   लिपटने   को,  इत्र   में   नहाने  को॥ 

इन्तजामे - कुदरत    है,  दाँत  दो  तरह  के  हैं।
ढेर   सारे   खाने   को ,  एक - दो   दिखाने  को॥


पाप   की    बहे   गंगा ,   आदमी    खड़ा    नंगा।
हैं   यहाँ   सभी  आतुर ,   डुबकियाँ   लगाने को॥


आप'अरुन' दुनिया में,किसको समझिये अपना। 
शुक्रिया   मगर  कहिये,  इस   यतीमखाने   को॥
                                     *


   

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