ग़ज़ल
मेरे मन का हिरन कैसे औ' बच के किधर जाता........
-अरुण मिश्र.
ये कमी अगर न होती, तो क्या बात पे मर जाता।
तुझ सा दिलेर होता, तो कह के मुक़र जाता॥
तुझ सा दिलेर होता, तो कह के मुक़र जाता॥
कभी लू के थपेड़ों सा, कभी सर्द हवाओं सा।
बेदर्द खिज़ाओं सा, मैं चमन से गुज़र जाता॥
हर पत्ते में, कोंपल में, हर गुन्चे में, हर ग़ुल में।
मुझे हर बहार में है, कोई अपना नज़र आता॥
जब फूलते शज़र हैं, औ' झूमती है शाख़ें।
तो फ़िज़ा में खुशनुमा सा, तेरा अक्स उभर आता॥
हम अपनी गिरानी को, तक़दीर ग़र न कहते।
इल्ज़ाम गिराने का, तो तेरे ही सर जाता॥
कुछ जाल थे ज़ुल्फ़ों के, कुछ बाड़ निगाहों की।
मेरे मन का हिरन कैसे, औ' बच के किधर जाता॥
ऐ काश! 'अरुन' तुम भी, कुछ दुनियादार होते।
तो टूटती न लाठी, औ' सॉप भी मर जाता॥
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