ये घन शेषनाग के फन हैं... |
( टिप्पणी : इस बरसात में छल रहे बादलों को देख कर जो कविता हुई है
या शायद वर्तमान परिदृश्य में हो सकी है, वह प्रस्तुत है। )
लगता है ये घन बरसेंगे......
-अरुण मिश्र
लगता है, ये घन बरसेंगे।
ये घन, विद्रूपों के घन हैं।
ये घन, कलुषित काला-धन हैं।
जन-जीवन में, विष उड़ेलते,
ये घन, शेषनाग के फन हैं॥
ना बरसे तो, झुलसेंगे तन;
बरस गये तो मन झुलसेंगे॥
ये घन, अनाचार के घन हैं।
कुत्सित कदाचार के घन हैं।
बाहर - भीतर, तम पसारते,
ये घन, अन्धकार के घन हैं॥
बन्द तिज़ोरी में बरसेंगे;
खुले खेत-ऑगन तरसेंगे॥
ये घन, कोई नहीं अनाड़ी।
अन्ना के हैं चतुर खिलाड़ी।
जीवन भर, खा-पी, डकार कर,
तिनका खोज रहे, हर दाढ़ी॥
ये बरसेंगे, जन्तर-मन्तर;
यदि वे, बीच सदन बरसेंगे॥
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कविता (2012)
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