ग़ज़ल
एक मुठ्ठी आसमां कमरे में आया है उतर....
-अरुण मिश्र.
एक मुठ्ठी आसमां कमरे में आया है उतर।
आसमानी आज मेरे यार ने ओढ़ी चुनर।।
चुनरी पे उसके टंके हैं इस तरह बूटे सफ़ेद।
शाम को जैसे फ़लक पर हों गये तारे बिखर।।
हौले-हौले चल न आ जायेगा गर्दू रक्स में।
गिर न जायें पैरहन से ये सितारे टूट कर।।
पल्लू ढलका, हाय ये क्या बाल क्यूँ बांधे नहीं?
छा गईं काली घटायें एक छिन में झूम कर।।
खिड़कियों से आ रही बे-रंगो-बू तीखी हवा।
हो उठी कितनी मुअत्तर ज़ुल्फ़ तेरा चूम कर।।
एक हलकी तीरगी लहरा गयी चेहरे पे जो।
हो उठा मैं बावरा सा चाँद छुपता देख कर।।
माँग की इस सुर्ख़ सिन्दूरी निशां का शुक्रिया।
एक कौंदे सी लपक, रौशन करे दिल की डगर।।
बाद गर्मी आयेगी बरखा की रितु एहसास था।
क्यूँ अभी से अब्रो-बर्क़ो-आब का झेलें असर।।
यूँ अचानक आएगा सावन बिना आहट किये।
इस तरह अप्रैल में इससे 'अरुन' थे बेख़बर।।
*
ग़ज़ल, (अप्रैल' 1978)
एक मुठ्ठी आसमां कमरे में आया है उतर....
-अरुण मिश्र.
एक मुठ्ठी आसमां कमरे में आया है उतर।
आसमानी आज मेरे यार ने ओढ़ी चुनर।।
चुनरी पे उसके टंके हैं इस तरह बूटे सफ़ेद।
शाम को जैसे फ़लक पर हों गये तारे बिखर।।
हौले-हौले चल न आ जायेगा गर्दू रक्स में।
गिर न जायें पैरहन से ये सितारे टूट कर।।
पल्लू ढलका, हाय ये क्या बाल क्यूँ बांधे नहीं?
छा गईं काली घटायें एक छिन में झूम कर।।
खिड़कियों से आ रही बे-रंगो-बू तीखी हवा।
हो उठी कितनी मुअत्तर ज़ुल्फ़ तेरा चूम कर।।
एक हलकी तीरगी लहरा गयी चेहरे पे जो।
हो उठा मैं बावरा सा चाँद छुपता देख कर।।
माँग की इस सुर्ख़ सिन्दूरी निशां का शुक्रिया।
एक कौंदे सी लपक, रौशन करे दिल की डगर।।
बाद गर्मी आयेगी बरखा की रितु एहसास था।
क्यूँ अभी से अब्रो-बर्क़ो-आब का झेलें असर।।
यूँ अचानक आएगा सावन बिना आहट किये।
इस तरह अप्रैल में इससे 'अरुन' थे बेख़बर।।
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ग़ज़ल, (अप्रैल' 1978)
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