शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

तुम परीशां हो कि आखि़र धातु का मैं किस ढला हूँ ........

ग़ज़ल 

तुम परीशां हो कि आखि़र धातु का मैं किस ढला हूँ ........

-अरुण मिश्र. 


तुम परीशां हो कि आखि़र धातु का मैं किस ढला हूँ ।
यातनाओं के  शिविर में  साँस   ले-ले  कर  पला हूँ ।।

हाँ   यही कारण है,  सह जाता हूँ   हर  तकलीफ मैं।
हॅसते-हॅसते इस तरह, जैसे  हिमालय की शिला हूँ ।।

आज  है  साहित्य  में   कुंठा,   निराशा   पर   बहस।
मैं  अभी  तक  नाज़नीं  की  कल्पना में  मुब्तिला हूँ ।।

सुनते  हैं   इस  दौर  में,  इन्सान  है  गुम   हो  गया।
भाई   मेरे  मुझको  देखो,  मैं  पुराना  सिलसिला  हूँ ।।

मेरे  संग  आये  न  कोई,   मुझको  है   परवा’  नहीं।
मेरी  है  बुनियाद  माज़ी,  मैं  स्वयं  ही  क़ाफि़ला हूँ ।।
                                          *



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