श्रीमद् शंकराचार्यकृत चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्
का भावानुवाद
-अरुण मिश्र.
भज गोविन्द मूढ़मते, भज गोविंद के चरण।
मृत्यु के समीप, साथ देता नहीं व्याकरण।।
रात्रि-दिवस, प्रात-साँझ, शेष हुई जाती आयु।
क्रीड़ा करे कालचक्र, छूटे पर न आशा-वायु।।
जागे, सहे अग्नि-भानु; सोये, धरे चिबुक जानु।
भिक्षा-भोग, तरु-निवास; छूटे पर न आशा-पाश।।
कमा सकेगा जब तक, देगा परिवार स्नेह।
जर्जर जब हुई देह, पूछे नहीं कोई गेह।।
जटा बढ़ा, केश घुटा, भगवा धरे नाना-वेष।
देख के न देखा; सहे, उदर के निमित्त क्लेश।।
किंचित भगवद्गीता, बूँद मात्र गंगाजल।
जिसपे हरि-चर्चा-बल, उसको यम है निर्बल।।
गलित अंग, पलित मुंड; दशनहीन हुआ तुंड।
हुआ वृद्ध, गहा दंड; छूटा पर न आशा-पिंड।।
क्रीड़ा में बाल्यकाल; तरुणाई तरुणी संग।
वृद्ध तदपि चिंतामग्न; प्रभु का ना चढ़ा रंग।।
पुनः-पुनः जन्म-मरण; गर्भ-शयन बार-बार।
ले कर हरि-शरण, करो, दुस्तर संसार पार।।
रात्रि-दिवस-पक्ष-मास-अयन-वर्ष बार-बार।
साथ पर नहीं छोड़े आशा-ईर्ष्या-विकार।।
नष्ट-आयु, कैसा काम? शुष्क-नीर-सर, न अर्थ।
नष्ट-द्रव्य, परिजन कहाँ ? तत्व-ज्ञान,जगत, व्यर्थ।।
नारीस्तन-नाभि हैं, माँस-मेद के विकार।
मिथ्या ये माया-मोह, सोचो मन बार-बार।।
कौन तुम? कहाँ से हो? सबको असार जान।
जननी औ’ तात कौन? तजो विश्व, स्वप्न मान।।
पढ़ो गीता-सहस्त्रनाम; श्री-पति का धरो ध्यान।
चित्त लहे सत्संगति; दीनजनों को दो दान।।
जब तक तन बसें प्राण, तब तक सब पूँछें कुशल।
होती, मृत-देह देख, भार्या भी भय से विकल।।
पहले तो सुःख-भोग; पीछे, रोगमय शरीर।
नश्वर संसार तदपि, मन पाप को अधीर।।
चिथड़ों से रचा कंथ; पुण्यापुण्य विचलित पंथ।
‘मैं, तू औ’ विश्व शून्य’ जान के भी, शोक? हंत!!
गंगासागर-गमन, व्रत-पालन तथा दान।
मुक्ति नहीं सौ जन्मों तक होगी, बिना ज्ञान।।
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इति श्री शंकराचार्य-विरचित चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्
का भावानुवाद संपूर्ण।
बहुत कम लोगों को समझ मे आयेगा लेकिन है यह अटल सत्य .सधन्यवाद ।
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