ग़ज़ल
मेरा गहरा रिश्ता ख़ारों से.....
- अरुण मिश्र.
मेरा गहरा रिश्ता ख़ारों से।
मैं क्यूँ माँगूँ भीख बहारों से।।
मेरे जख़्म हरे हैं, जिन पर खिले हुये।
फूल लहू के सुर्ख़ फुहारों से।।
देखें किसकी प्यास बुझाता कौन यहाँ।
आज उफनती नदी किनारों से।।
बिन पैसे, दिन स्याह-स्याह सा बीत गया।
रात रखूँ क्या आस सितारों से??
‘अरुन’ बहुत मासूम तुम्हारी उम्मीदें।
इन्क़लाब कब आता नारों से??
*
मेरा गहरा रिश्ता ख़ारों से.....
- अरुण मिश्र.
मेरा गहरा रिश्ता ख़ारों से।
मैं क्यूँ माँगूँ भीख बहारों से।।
मेरे जख़्म हरे हैं, जिन पर खिले हुये।
फूल लहू के सुर्ख़ फुहारों से।।
देखें किसकी प्यास बुझाता कौन यहाँ।
आज उफनती नदी किनारों से।।
बिन पैसे, दिन स्याह-स्याह सा बीत गया।
रात रखूँ क्या आस सितारों से??
‘अरुन’ बहुत मासूम तुम्हारी उम्मीदें।
इन्क़लाब कब आता नारों से??
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