कोई फूटी किरन माह से....
-अरुण मिश्र.
इक जरा, इक जरा, इक जरा।
मुस्करा, मुस्करा, मुस्करा।।
इक तबस्सुम ने, मुझको किया।
उम्र भर के लिये, सिरफिरा।।
चाँदनी खिलखिलाती रही।
रात भर, पर कहाँ जी भरा।।
मेरे अरमाँ, मचलते हुये।
तेरा अन्दाज़, शोख़ी भरा।।
सारी कोशिश, धरी रह गयी।
रह गया इल्म सारा, धरा।।
जितना ही हम छुपाते गये।
उतना खुलता गया, माज़रा।।
पुतलियाँ हौले से हँस उठीं।
लब थिरक कर, खिंचे हैं जरा।।
कोई फूटी किरन, माह से।
कोई झरना, कहीं पे झरा।।
काश ! टूटे कभी न, ‘अरुन’।
इन तिलिस्मात का, दायरा।।
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