मलबों में सिसकी लेती हैं जाने कितनी करुण-कथायें ...
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मेरा मन केदारनाथ में .....
-अरुण मिश्र.
यूँ तो मैं घर में बैठा हूँ,
मेरा मन केदारनाथ में।।
जहाँ प्रकृति ताण्डव-लीला-रत;
पागल जहाँ हुये हैं बादल।
घूम रहा है उस प्रान्तर में,
पर्वत - पर्वत, जंगल - जंगल।।
मेरा मन उनसे जुड़ता है,
बचा न जिनके कोई साथ में।।
किसका साथ कहाँ पर छूटा?
अन्तहीन बह रहीं व्यथायें।
मलबों में सिसकी लेती हैं,
जाने कितनी करुण-कथायें।।
संग तुम्हारे, सब सनाथ थे;
कैसे, कुछ बदले अनाथ में??
जो विनशे विनाश-लीला में,
उनके प्रति यह हृदय, द्रवित है।
किन्तु, प्रलय से जो बच निकले,
उन्हें देख, मन रोमांचित है।।
कौन जियेगा, कौन मरेगा?
है यह विधि के चपल हाथ में।।
थोड़े आँसू की श्रद्धाँजलि,
उन्हें, नहीं हैं शेष आज जो।
जो विपदा में बचे सुरक्षित,
पथ उनका भी, मंगलमय हो।।
महाप्रलय के बाद, सृष्टि फिर
नूतन उभरे, नव-प्रभात में।।
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