16.04.95
कौन है मेरा दुश्मन ?
-अरुण मिश्र
भीतर है अंधकार, बाहर है रोशनी।
हैं कितने निर्धन, जो ख़ुद को कहते धनी।।
हंस मर रहे भूखे, उल्लुओं की पौ बारह।
लक्ष्मी मैया की भी, सुरसती से क्या ठनी।।
कौन है मेरा दुश्मन, हारता हूँ मैं किस से ?
क्या नहीं है सच, मेरी ख़ुद से है दुश्मनी।।
लाख जतन कर डाले, ज़िन्दगी सँवर जाये।
बात पर बनी न कुछ, उल्टे जां पर बनी।।
कलियाँ किरनों के संग, दिन भर तो हैं खेलीं।
सिमट रहीं हैं किरनें, कलियाँ सब अनमनी।।
यार को भी था जाना,चौदहवीं की ही शब को।
वर्ना देखता कितनी, चाँद तुझ में रोशनी।।
रूप की किसी गंगा से, ज़रूर गुज़री है।
है हवा रसीली ये, कितनी ख़ुशबू सनी।।
बदलियां थिरकती हैं, झूम-झूम रस झरतीं।
बिजलियों ने पहनाई, चाँदी की करधनी।।
वक़्त का कसैलापन, कुछ तो बेअसर होगा।
प्यार की ‘अरुन’ थोड़ी, डालो तो चाशनी।।
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