शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

स्मृति शेष कुँवर 'बेचैन' जी को याद करते हुए ...

आदरणीय कुँवर 'बेचैन' जी के स्मृति शेष होने पर  
शोक संतप्त मन से एक पुरानी ग़ज़ल के माध्यम से 
उन्हें याद  कर, श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा हूँ।
यह ग़ज़ल, उनसे ही किसी मुलाकात के बाद लिखी गई थी।
-अरुण मिश्र 
 
जब  मुक़द्दर में  लिखीं,   हमदम   हों  ये   बेचैनियां।
हों   शरीक़े - जां,   शरीक़े - ग़म   हों    ये   बेचैनियां।।

दूसरों  के   दर्द  को ,   महसूस   करने   की   सिफ़त।
जिसमें हो,  उसमें न  क्यूँ ,  पैहम  हों  ये   बेचैनियां।।

दिल को पिघलायेगी,इनकी आँच सुलगायेगी मन।
कर लो ऑखें नम, तो कुछ   मद्धम हो ये  बेचैनियां।।

हर  सुख़न के  फूल में,  रोशन हों  ज्यूं   रंगे-शफ़क।
गुंचों   पे  अशआर  के,   शबनम  हों   ये  बेचैनियां।।

हम   इधर  बेचैन  हैं,   तुम   भी   उधर   बेचैन  हो।
साथ बैठो तो ‘अरुन’,  कुछ   कम हों ये  बेचैनियां।।
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