https://youtu.be/RGTZDWwpO_A
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी,
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: ।
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: ।
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पूर्वमेघ श्लोक -२
अर्थ : विछोह में उस कामी यक्ष ने उस पर्वत पर कई मास बिता दिए।
उसकी कलाई सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी दीखने लगी।
आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा।
ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन कोई हाथी हो।
उसकी कलाई सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी दीखने लगी।
आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा।
ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन कोई हाथी हो।
ललित आलेख : शैलेश कुमार जैमन
sanskritbharatam@gmail.com
कुबेर के उस सेवक (हेममाली) यक्ष की नयी-नयी शादी हुई थी,
सबेरे उठने में देर हो जाती थी | इसलिए वह रात्रि को ही कमल के
पुष्प तोड़ कर रख लेता और जब कुबेर शिव-पूजा पर बैठते तब
फूलों की टोकरी पहुंचा देता ।
एक दिन कुबेर ने कमल पुष्पों में भ्रमर को देखा, कुबेर को संदेह हुआ,
उसने यक्ष से पूछा, ये पुष्प तुमने कब तोड़े थे ?
सच बात सामने आ गयी ! कुबेर ने यक्ष को एक साल का निर्वासन-दंड़ दिया।
यक्ष रामगिरि पर्वत पर निर्वासन के दिन व्यतीत कर रहा था !
प्रिया के वियोग-दु:ख के कारण यक्ष की कलाई में से सोने के कड़े शिथिल हो
कर गिर गये और उसकी कलाई सूनी हो गयी थी ।
आषाढ़ महिने के पहले दिन उसने देखा कि पहाड़ की चोटी पर बादल इस
प्रकार से सटे हुए [पहाड़ का आलिंगन करते हुए] क्रीडा कर रहे हैं
जैसे कोई हाथी टीले से मिट्टी उखाड़ने [ढूसा मारने] का खेल करता है ।
सबेरे उठने में देर हो जाती थी | इसलिए वह रात्रि को ही कमल के
पुष्प तोड़ कर रख लेता और जब कुबेर शिव-पूजा पर बैठते तब
फूलों की टोकरी पहुंचा देता ।
एक दिन कुबेर ने कमल पुष्पों में भ्रमर को देखा, कुबेर को संदेह हुआ,
उसने यक्ष से पूछा, ये पुष्प तुमने कब तोड़े थे ?
सच बात सामने आ गयी ! कुबेर ने यक्ष को एक साल का निर्वासन-दंड़ दिया।
यक्ष रामगिरि पर्वत पर निर्वासन के दिन व्यतीत कर रहा था !
प्रिया के वियोग-दु:ख के कारण यक्ष की कलाई में से सोने के कड़े शिथिल हो
कर गिर गये और उसकी कलाई सूनी हो गयी थी ।
आषाढ़ महिने के पहले दिन उसने देखा कि पहाड़ की चोटी पर बादल इस
प्रकार से सटे हुए [पहाड़ का आलिंगन करते हुए] क्रीडा कर रहे हैं
जैसे कोई हाथी टीले से मिट्टी उखाड़ने [ढूसा मारने] का खेल करता है ।
बाबा नागार्जुन की एक कविता
सन्दर्भ : मेघदूत [महाकवि कालिदास ]
रोया यक्ष कि तुम रोये थे ?
“वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथमदिवस आषाढ-मास का
देख गगन में श्याम घनघटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खडे-खडे तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था,
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बन कर उड़ने वाले
कालिदास ! सच सच बतलाना
पर-पीडा से पूर-पूर हो
थक-थक कर और चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर ! तुम कब तक सोये थे ?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे ?
कालिदास सच-सच बतलाना !
…….बाबा नागार्जुन
________
जल का एक पर्याय है वारि ।
वारि में “ज” प्रत्यय जुड़ने पर वह “पद्म” बन जाता है
और “द” प्रत्यय जुड़ने पर “मेघ” । “वारिज” यानी कमल,
“वारिद” यानी मेघ । जल का एक अन्य पर्याय नीर है, उसके
साथ भी यही कथा – “नीरज” यानी कमल, “नीरद” यानी मेघ ।
स्वयं जल के साथ यही – “जलज” यानी कमल, “जलद” यानी मेघ।
जल की व्यंजना में ही मेघ और पुष्प बहुत निकट हैं, मात्र एक प्रत्यय
के परकोटे से पृथक । वैसे यह अकारण नहीं कि कभी-कभी हम जल को
भी मेघपुष्प की तरह देखने लगें । विशेष रूप से वर्षाजल को ।
वास्तव में, यह केवल कवि कल्पना नहीं, सच में ही जल को “मेघपुष्प”
कहा गया है । “अमरकोश” में जल के लिए कोई सत्ताइस संज्ञाएं हैं,
उन्हीं में से एक है – मेघपुष्प ! राजस्थान में यही “मेघपुहुप” हो जाता है।
“मेघमोती” सुना था, किंतु “मेघपुष्प” की कल्पना नहीं की थी ।
“मेघपुष्प” सुना तो “आकाश कुसुम” की कल्पना भी मन में कौंध गई !
फिर यह भी सूझा कि अगर वर्षाजल मेघपुष्प है तब तो वर्षा को वृक्ष ही
कहना होगा ना ? मैं तो कहूंगा वर्षा आकाश में उगने वाला “कल्पवृक्ष” है !
“जलज” सदैव जल में होता है । किंतु जल स्वयं मेघमालाओं का पद्मपुष्प है,
नील उत्पल है, देवदुन्दुभि के घोष से भरा हुआ, यहां तक कल्पना का जाना
इतना सरल नहीं।
वारि में “ज” प्रत्यय जुड़ने पर वह “पद्म” बन जाता है
और “द” प्रत्यय जुड़ने पर “मेघ” । “वारिज” यानी कमल,
“वारिद” यानी मेघ । जल का एक अन्य पर्याय नीर है, उसके
साथ भी यही कथा – “नीरज” यानी कमल, “नीरद” यानी मेघ ।
स्वयं जल के साथ यही – “जलज” यानी कमल, “जलद” यानी मेघ।
जल की व्यंजना में ही मेघ और पुष्प बहुत निकट हैं, मात्र एक प्रत्यय
के परकोटे से पृथक । वैसे यह अकारण नहीं कि कभी-कभी हम जल को
भी मेघपुष्प की तरह देखने लगें । विशेष रूप से वर्षाजल को ।
वास्तव में, यह केवल कवि कल्पना नहीं, सच में ही जल को “मेघपुष्प”
कहा गया है । “अमरकोश” में जल के लिए कोई सत्ताइस संज्ञाएं हैं,
उन्हीं में से एक है – मेघपुष्प ! राजस्थान में यही “मेघपुहुप” हो जाता है।
“मेघमोती” सुना था, किंतु “मेघपुष्प” की कल्पना नहीं की थी ।
“मेघपुष्प” सुना तो “आकाश कुसुम” की कल्पना भी मन में कौंध गई !
फिर यह भी सूझा कि अगर वर्षाजल मेघपुष्प है तब तो वर्षा को वृक्ष ही
कहना होगा ना ? मैं तो कहूंगा वर्षा आकाश में उगने वाला “कल्पवृक्ष” है !
“जलज” सदैव जल में होता है । किंतु जल स्वयं मेघमालाओं का पद्मपुष्प है,
नील उत्पल है, देवदुन्दुभि के घोष से भरा हुआ, यहां तक कल्पना का जाना
इतना सरल नहीं।
“अमरकोश” कुल पच्चीस वर्गों में विभक्त है । आप अगर इसमें मेघ के पंद्रह
पर्याय खोजना चाहें तो यह स्वाभाविक ही है कि आप “वारिवर्ग” में चले जाएं ।
यह अनुमान लगा लेना सरल ही है ना कि वायुवेग वाले वारिद “प्रथम काण्ड” के
दशम् वर्ग यानी “वारिवर्ग” में ही मिलेंगे । किंतु “अमरकोशकार” ने उन्हें
उल्लेखित किया है प्रथम काण्ड के तृतीय वर्ग “दिग्वर्ग” में । किंतु ऐसा केवल
इसीलिए नहीं है कि मेघ “दिग्विजयी” होते हैं । ऐसा इसलिए है, कि पंचमहाभूतों
में आकाश को “दिक्” का ही पर्याय माना गया है । अस्तु आकाश के जितने भी
पदार्थ होंगे, वे “दिग्वर्ग” में ही होंगे। “अमरकोश” में मेघों के पंद्रह पर्याय हैं,
यथा – तड़ित्वान, धूमयोनि, अभ्रम्, स्तनयित्नु । मेघों के नाना नामरूप ।
मेघमाला कहलाती है कादम्बिनी ।
विद्युल्लता कहलाई है शम्पा और शतह्रदा !
धारासार वर्षा को कहा है धारासम्पात् ।
धरती के तप और ताप से ही तो आकाश में धूममेघ का तोरण बंधता है। आषाढ़ के
मास में, आर्द्रा नक्षत्र लगते ही, जब कुरबक के पुष्प झड़ जाते हैं और कांस के फूल
खिलने में वर्षान्त तक का समय होता है, तब दिक् के देवता आकाश से मेघपुष्पों की
वर्षा करते हैं । यह वर्षा नहीं है, यह वंदनवार है ! ऋतुओं के देवता ने अपने सबसे
सुंदर मेघपुष्पों से चुनकर आपके लिए यह तोरण बांधा है ।
ज्येष्ठ का आयुफल गाछ पर ही गल गया, अब यह आषाढ़ के आयुष्मान दिवस हैं,
इनका अपने भीतर संजोई नमी के पुष्पों से अभिवादन करें । मेघपुष्पों को अपने मन
के कुसुमों से मिलने दें ।
आख़िर फूल ही तो फूल का मर्म पहचानेंगे।
पर्याय खोजना चाहें तो यह स्वाभाविक ही है कि आप “वारिवर्ग” में चले जाएं ।
यह अनुमान लगा लेना सरल ही है ना कि वायुवेग वाले वारिद “प्रथम काण्ड” के
दशम् वर्ग यानी “वारिवर्ग” में ही मिलेंगे । किंतु “अमरकोशकार” ने उन्हें
उल्लेखित किया है प्रथम काण्ड के तृतीय वर्ग “दिग्वर्ग” में । किंतु ऐसा केवल
इसीलिए नहीं है कि मेघ “दिग्विजयी” होते हैं । ऐसा इसलिए है, कि पंचमहाभूतों
में आकाश को “दिक्” का ही पर्याय माना गया है । अस्तु आकाश के जितने भी
पदार्थ होंगे, वे “दिग्वर्ग” में ही होंगे। “अमरकोश” में मेघों के पंद्रह पर्याय हैं,
यथा – तड़ित्वान, धूमयोनि, अभ्रम्, स्तनयित्नु । मेघों के नाना नामरूप ।
मेघमाला कहलाती है कादम्बिनी ।
विद्युल्लता कहलाई है शम्पा और शतह्रदा !
धारासार वर्षा को कहा है धारासम्पात् ।
धरती के तप और ताप से ही तो आकाश में धूममेघ का तोरण बंधता है। आषाढ़ के
मास में, आर्द्रा नक्षत्र लगते ही, जब कुरबक के पुष्प झड़ जाते हैं और कांस के फूल
खिलने में वर्षान्त तक का समय होता है, तब दिक् के देवता आकाश से मेघपुष्पों की
वर्षा करते हैं । यह वर्षा नहीं है, यह वंदनवार है ! ऋतुओं के देवता ने अपने सबसे
सुंदर मेघपुष्पों से चुनकर आपके लिए यह तोरण बांधा है ।
ज्येष्ठ का आयुफल गाछ पर ही गल गया, अब यह आषाढ़ के आयुष्मान दिवस हैं,
इनका अपने भीतर संजोई नमी के पुष्पों से अभिवादन करें । मेघपुष्पों को अपने मन
के कुसुमों से मिलने दें ।
आख़िर फूल ही तो फूल का मर्म पहचानेंगे।
शैलेश कुमार जैमन
प्राध्यापक (साहित्यविभाग)
राजकीय महाराज आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर
प्राध्यापक (साहित्यविभाग)
राजकीय महाराज आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर
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