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जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो...
दैत्य संहारन वेद उधारन दुष्टन को तुमहीँ खलती हो। खड्ग त्रिशूल लिये धनुबान औ सिंह चढ़े रण मेँ लड़ती हो॥ दासके साथ सहाय सदा सो दया करि आन फते करती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥१॥
आदि की ज्योति गणेश की मातु कलेश सदा जन के हरती हो। जब – जब दैत्यन युद्ध भयो तहँ शोणित खप्पर लै भरती हो॥ की कहुँ देवन गाँछ कियो तहँ धाय त्रिशूल सदा धरती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥२॥
सेवक से अपराध परो कछु आपन चित्त मेँ ना धरती हो। दास के काज सँभारि नितै जन जान दया को मया करती हो॥ शत्रु के प्राण संहारन को जग तारन को तुम सिन्धु सती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥३॥
की तो गई बलि संग पताल कि तो पुनि ज्योति अकाशगती हो। कि धौँ काम परो हिँगलाजहिँ मेँ, कै सिन्धु के विन्दु मेँ जा छिपती हो॥ चुग्गुल चोर लबारन को बटमारन को तुमहीँ दलती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥४॥
बान सिरान कि सिँह हेरान कि ध्यान धरे प्रभु को जपती हो। की कहुँ सेवक कष्ट परो तहँ अष्टभुजा बल दे लड़ती हो॥ सिँह चढ़े सिर छत्र विराजत लाल ध्वजा रण मेँ फिरती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥५॥
देवि, तुम्हारि करौँ विनती इतना तुम काज करौ सुमती हो। ब्रह्मा, विष्णु, महेश कि हौँ रथ हाँक सदा जग मेँ फिरती हो॥ चण्डहि मुण्डहि जाय बधो तब जाय के शत्रु निपात गती हो। मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥६॥
मारि दियो महिषासुर को हरि केहरि को तुमहिँ पलती हो। मधु – कैटभ दैत्य विध्वंस कियो नर देवन पति के ईशपती हो॥ दुष्टन मारि आनन्द कियो निज दासन के दुःख को हरती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥७॥
साधु समाधि लगावत हैँ तिनके तन को तू तुरत तरती हो। जो जन ध्यान धरै तुमरो तिनकी प्रभुता चित्त दै करती हो॥ तेरो प्रताप तिहूँ पुर मेँ तुलसी जन की मनसा भरती हो। मोहिँ पुकारत देर भई जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो॥८॥
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