सोमवार, 16 सितंबर 2024

सौन्दर्य लहरी / आदि शंकराचार्य विरचित / गायन : माधवी मधुकर झा

https://youtu.be/gaxXqlSWaSY  

श्री जगद्गुरु शंकराचार्य ने सौन्दर्यलहरी स्त्रोत में श्री आदि शक्ति मूलमाया एवं 
शुद्ध विध्या का तात्विक, यौगिक, और प्राकृतिक सगुणरूप का, रस्गार्भित, 
भक्तिपूर्ण, व मनोहर वर्णन किया है | भगवत्पाद ने जो अनेक ग्रन्थ तात्विक 
और धार्मिक विषय के लिखे हैं, उनमें ‘सौन्दर्यलहरी’ एक संकीर्ण स्त्रोत है, 
जिस की रचना भगवत्पाद ने बाल्यावस्था में ही की थी।

भुमौस्खलित पादानाम् भूमिरेवा वलम्बनम् ।
त्वयी जाता पराधानाम् त्वमेव शरणम् शिवे ॥
शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि।
अतस्त्वाम् आराध्यां हरि-हर-विरिन्चादिभि रपि
प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथ-मक्र्त पुण्यः प्रभवति ॥१। 
अर्थः -यदि शिव शक्ति से युक्त होकर ही सष्टि करने को शक्तिमान होता है और 
यदि ऐसा न होता तो वह ईश्वर भी स्पन्दित होने को योग्य नहीं था इसलिये तुझे हार 
और ब्रह्मा की भी आराध्य देवता को किसी भी पुण्यहीन मनुष्य में प्रणाम करने अथवा 
स्तुति करने की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
तनीयांसुं पांसुं तव चरण पङ्केरुह-भवं
विरिञ्चिः सञ्चिन्वन् विरचयति लोका-नविकलम् ।
वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां
हरः सङ्क्षुद्-यैनं भजति भसितोद्धूल नविधिम् ॥२॥
अर्थः- " तेरे चरण कमल से उत्पन्न होने वाले छोटे से एक रजकण को चुनकर ब्रह्मा 
विना विकलता के लोक लोकान्तरों की रचना करता रहता है और शेषनाग उसको 
जैसे तैसे अर्थात बडे परिश्रम से सहस्र शिरों पर उठा रहा है । धारण कर रहा है ) 
और हर उसकी भन्म बना कर अपने अंग पर लगाते हैं ॥२॥
अविद्याना-मन्त-स्तिमिर-मिहिर द्वीपनगरी
जडानां चैतन्य-स्तबक मकरन्द श्रुतिझरी ।
दरिद्राणां चिन्तामणि गुणनिका जन्मजलधौ
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु वराहस्य भवति ॥३॥
अर्थः-तू अविद्या में पडे हुओं को हृदयान्धकार को हटाने के लिये (ज्ञानरूपी) सूर्य 
का उद्दीपन करने वाली है, जड मनुष्यों के लिये चैतन्यस्तक्क से निकलने वाले 
मकरन्द के स्रोतों का बारना है, दरिदियों के लिये चिन्तामणियों की माला है और 
जन्ममरण रूपी संगार सागर में इबे हुओं को विष्णु भगवान के वाराहावतार के 
दांत के सदृश उद्धार करने वाली है
त्वदन्यः पाणिभया-मभयवरदो दैवतगणः
त्वमेका नैवासि प्रकटित-वरभीत्यभिनया ।
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वांछासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥४॥
अर्थ:- तेरे सिवाय अन्य सब देवतागण दोनों हाथों के अभिनय से अभयदान और 
वरदान देते हैं। तू हो एक ऐसी है जो अमयदान अथवा वरदान देते समय हाथों का 
अभिनय नहीं करती । भय से आण करने में और बांछा के अनुकूल वर प्रदान करने में 
तेरे दोनों चरण ही निपुण है।
हरिस्त्वामारध्य प्रणत-जन-सौभाग्य-जननीं
पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभ मनयत् ।
स्मरो‌உपि त्वां नत्वा रतिनयन-लेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् ॥५॥
अर्थ:- हरि (विष्णु भगवान ) ने पूर्व काल में, प्रणत जनों को सौभाग्य प्रदान करने वाली 
तेरी आराधना कर के नारी का मोहिनी रूप धारण कर, त्रिपुरारि महादेव के भी चित्त में 
कान का क्षोभ उत्पन्न कर दिया था । और काम देव स्मर भी तुझ को नमन करने के कारण 
ही अपनी पत्नी रति के नयनों द्वारा चुंबन किये जाने वाले शरीर से बडे बडे मुनियों के मी 
अन्त:करण में मोह उत्पन्न कर देता है।
धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्च विशिखाः
वसन्तः सामन्तो मलयमरु-दायोधन-रथः ।
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपां
अपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनङ्गो विजयते ॥६॥
अर्थ:-धनुष्य पुष्पों का बना है, उसकी रस्सी ( ज्या) मारों की बनी है, शब्द स्पर्श रूप रस 
गंध पांच विषय उसके बाण है, वसन्त ऋतु उसका योद्धा सामन्त है, मलयागिरि का शीतल 
मंद सुगधित पवन उसका युद्ध में बैठने का रथ है और वह स्वयं अनंग (शरीर रहित ) है, 
ऐसा कामदेव ऐसे शन्नों को कर सार जगत को अकेला जीत लेता है । हे हिमगिरि सुते ! 
यह सामर्थ्य केवल तेरे कटाक्ष से कुछ थोडी सी ही कृपा प्राप्त करने का फल है।
क्वणत्काञ्ची-दामा करि कलभ कुम्भ-स्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणत शरच्चन्द्र-वदना ।
धनुर्बाणान् पाशं सृ॒णिमपि दधाना करतलैः
पुरस्ता दास्तां नः पुरमथितु राहो-पुरुषिका ॥७॥
अर्थ:- कटि पर कण कण शब्द करने वाले बूंघुरुओं युक्त मेखला बांधे हुए, 
हाथी के बच्चे के मस्तक पर निकले हुए कुंभ सद्दश स्तनों के भार से झुकी हुई, 
मध्य भाग में पतली, शरद प्रतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसे मुख वाली, चारों हायों 
में धनुष, ५ बाण, पाश, और अंकुश धारण किये पुरारि की आहो पुरुषिका हमारे 
सामने ( ध्यान में ) रहें ।
सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविट-पिवाटी-परिवृते
मणिद्वीपे नीपो-पवनवति चिन्तामणि गृहे ।
शिवकारे मञ्चे परमशिव-पर्यङ्क निलयाम्
भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्द-लहरीम् ॥८॥
अर्थः सुधा के समुद्र के मध्य, कल्प वृक्षों की वाटिका से घिरे हुए मणि द्वीप में, 
नीप वृक्षों के उपवन के बीच चिन्ता- मणियों के बने घर में, त्रिकोणाकृति मंच पर, 
परम शिव के पलंग पर विराजमान चिदानन्द लहरी स्वरूप तेरा, कोई बिरले 
मनुष्य भजन करते हैं. वे धन्य हैं।
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वधिष्टाने हृदि मरुत-माकाश-मुपरि ।
मनो‌உपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे स हरहसि पत्या विहरसे ॥९॥
अर्थ:पृथिवी तत्व को मूलाधार में और जल को भी (मूलाधार में ही) मणिपुर में 
अग्नितत्व को जिसकी स्थिति स्वाधिष्टान में है, हृदय में वायु तत्व को और ऊपर 
विशुद्ध चक्र) में आकाश तत्व को, और मन को भी भ्रमध्य में, इस प्रकार सकल 
कुल पथ (शक्ति के मार्ग) का वेध करके तू, सहस्रार पद्म में अपने पति के साथ 
एकान्त में विहार करती है।
सुधाधारासारै-श्चरणयुगलान्त-र्विगलितैः
प्रपञ्चं सिन्ञ्न्ती पुनरपि रसाम्नाय-महसः।
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभ-मध्युष्ट-वलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ॥१०॥
अर्थः - अमृत धाराओं की वर्षा मे, जो तेरे दोनों चरणों के बीच से टपकती है, प्रपंच को 
सींचती हुई फिर छओं आवायों से होती हुई अथवा काओं चक्रों द्वारा सींचती हुई, अपनी 
भूमि पर उत्तरकर अपने आप को सर्पिणी के सदृश साढे तीन कुंडल डालकर, हे 
कुहरिणी! तू कुल कुंड में सोती है।

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