मंगलवार, 12 नवंबर 2019

कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष...


महर्षि वाल्मीकि विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद 

( टिप्पणी  :  यह भावानुवाद , पवित्र  श्रृंगवेर पुर घाट ,जनपद प्रयाग की 
सीढ़ियों पर  जुलाई 1995 में हुआ था।इस गंगाष्टक में आदिकवि महर्षि 
वाल्मीकि ने गंगा कोलेकर बड़ी ही मनोहारी, लालित्यपूर्ण एवं  भावमयी  
कल्पनायें की हैं, जिनका कृतज्ञतापूर्वक अनुवाद कर पुण्यलाभ लेते हुये 
धन्य होने के लोभ का संवरणमेरा कवि-मन न कर सका।

मैं इसके लिये उन अनाम पंडित जी का भी कृतज्ञ हूँ,
जिन्हें गंगास्नान 
करते हुये इसका पाठ करते सुन कर,मेरे मन में इस भावानुवाद की 
प्रेरणा जाग्रत हुई | )

अथ श्री गंगाष्टक भावानुवाद
- अरुण मिश्र
माता    शैलपुत्री    की   सहज   सपत्नी   तुम,
धरती  का   कंठहार  बन  कर  सुशोभित हो।
स्वर्ग-मार्ग  की  हो तुम  ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी !  बस   तुमसे   इतनी   है   प्रार्थना-
बसते   हुये   तेरे  तीर,  पीते  हुये   तेरा  नीर,
होते     तरंगित     गंग ,    तेरे   तरंगों   संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय   होवे   मॉं !    मेरे   नश्वर    शरीर   का।।
मत्त   गजराजों    के    घंटा - रव   से   सभीत -
शत्रु - वनिताओं   से    वन्दित   भूपतियों  से -
श्रेष्ठ ,    तव     तीर-तरु-कोटर-विहंग ,    गंग ;
तव  नर्क-नाशी-नीर-वासी ,  मछली-कछुआ ||
कंकण स्वर युक्त, व्यजन  झलती बालाओं से -
शोभित   भूपाल   अन्यत्र  का ,  न  अच्छा है |
सहूँ   जन्म-मरण-क्लेश,  रहूँ   तेरे  आर-पार ,
भले  गज,  अश्व,  वृषभ,  पक्षी  या  सर्प   बनूँ  ||
नोचें  भले   काक - गीध ,   खाएं  भले  श्वान-वृन्द ,
देव  -  बालाएं      भले ,     चामर      झलें    नहीं |
धारा-चलित, तटजल-शिथिल, लहरों से आन्दोलित,
भागीरथि !    देखूँगा   कब   अपना   मृत   शरीर।।
हरि  के  चरण कमलों  की   नूतन  मृणाल सी है;
माला,  मालती   की   है   मन्मथ  के   भाल  पर।
जय  हो    हे !  विजय-पताका  मोक्ष-लक्ष्मी  की;
कलि-कलंक-नाशिनि,  जाह्नवी ! कर पवित्र हमें।।
साल,  सरल,  तरु-तमाल,  वल्लरी-लताच्छादित,
सूर्यताप-रहित, शंख,  कुन्द,  इन्दु  सम उज्ज्वल।
देव -  गंधर्व -  सिद्ध -   किन्नर -   वधू -  स्पर्शित,
स्नान   हेतु   मेरे   नित्य,  निर्मल   गंगा-जल  हो।।
चरणों    से   मुरारी    के,   निःसृत   है   मनोहारी,
गंगा  -  वारि ,  शोभित   है   शीश   त्रिपुरारी   के।
ऐसी    पापहारी    मॉ - गंगा   का ,   पुनीत   जल,
तारे   मुझे   और   मेरा  तन - मन   पवित्र   करे।।
करती     विदीर्ण     गिरिराज  -   कंदराओं    को ,
बहती  शिलाखंडों  पर  अविरल  गति  से  है  जो;
पाप    हरे ,    सारे     कुकर्मों    का    नाश    करे ,
ऐसी      तरंगमयी      धारा ,     माँ - गंगा     की ||
कल-कल   रव   करते,   हरि- पद-रज  धोते हुए ,
सतत   शुभकारी,   गंग-वारि   कर   पवित्र  मुझे ||
                                *
वाल्मीकि - विरचित  यह  शुभप्रद  जो नर नित्य-
गंगाष्टक    पढ़ता    है    ध्यान    धर    प्रभात   में |
कलि-कलुष-रूपी   पंक ,  धो  कर  निज  गात्र  की ,
पाता   है   मोक्ष ;   नहीं  गिरता   भव - सागर   में ||
                            ***
" इति श्री वाल्मीकि -विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद संपूर्ण |"

(पूर्वप्रकाशित)

मूल संस्कृत पाठ 

॥ गङ्गाष्टकं श्रीवाल्मिकिविरचितम् ॥

मातः शैलसुता-सपत्नि वसुधा-शृङ्गारहारावलि
स्वर्गारोहण-वैजयन्ति भवतीं भागीरथीं प्रार्थये ।
त्वत्तीरे वसतः त्वदम्बु पिबतस्त्वद्वीचिषु प्रेङ्खतः
त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः ॥ १॥

त्वत्तीरे तरुकोटरान्तरगतो गङ्गे विहङ्गो परं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योऽथवा कच्छपः ।
नैवान्यत्र मदान्धसिन्धुरघटासङ्घट्टघण्टारण-
त्कारस्तत्र समस्तवैरिवनिता-लब्धस्तुतिर्भूपतिः ॥ २॥

उक्षा पक्षी तुरग उरगः कोऽपि वा वारणो वाऽ-
वारीणः स्यां जनन-मरण-क्लेशदुःखासहिष्णुः ।
न त्वन्यत्र प्रविरल-रणत्किङ्किणी-क्वाणमित्रं
वारस्त्रीभिश्चमरमरुता वीजितो भूमिपालः ॥ ३॥

काकैर्निष्कुषितं श्वभिः कवलितं गोमायुभिर्लुण्टितं
स्रोतोभिश्चलितं तटाम्बु-लुलितं वीचीभिरान्दोलितम् ।
दिव्यस्त्री-कर-चारुचामर-मरुत्संवीज्यमानः कदा
द्रक्ष्येऽहं परमेश्वरि त्रिपथगे भागीरथी स्वं वपुः ॥ ४॥

अभिनव-बिसवल्ली-पादपद्मस्य विष्णोः
मदन-मथन-मौलेर्मालती-पुष्पमाला ।
जयति जयपताका काप्यसौ मोक्षलक्ष्म्याः
क्षपित-कलिकलङ्का जाह्नवी नः पुनातु ॥ ५॥

एतत्ताल-तमाल-साल-सरलव्यालोल-वल्लीलता-
च्छत्रं सूर्यकर-प्रतापरहितं शङ्खेन्दु-कुन्दोज्ज्वलम् ।
गन्धर्वामर-सिद्ध-किन्नरवधू-तुङ्गस्तनास्पालितं
स्नानाय प्रतिवासरं भवतु मे गाङ्गं जलं निर्मलम् ॥ ६॥

गाङ्गं वारि मनोहारि मुरारि-चरणच्युतम् ।
त्रिपुरारि-शिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ॥ ७॥

पापापहारि दुरितारि तरङ्गधारि
शैलप्रचारि गिरिराज-गुहाविदारि ।
झङ्कारकारि हरिपाद-रजोपहारि
गाङ्गं पुनातु सततं शुभकारि वारि ॥ ८॥

गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते
वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्यः ।
प्रक्षाल्य गात्र-कलिकल्मष-पङ्क-माशु
मोक्षं लभेत् पतति नैव नरो भवाब्धौ ॥ ९॥

॥ इति वाल्मीकिविरचितं गङ्गाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें