मंगलवार, 2 मई 2023

यह बिनती रघुबीर गुसाईं.../ गोस्वामी तुलसीदास / गायन : शाल्मली जोशी

 https://youtu.be/v8LqtKT_Tow   

यह बिनती रघुबीर गुसाईं...

गोस्वामी तुलसीदास कृत 
विनय-पत्रिका पद सं0- १०३
यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद, बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥

कुटिल करम लै जाहिं मोहि, जहँ-जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥ ३ ॥

या जग मेँ जहँ लगि या तनु की, प्रीति-प्रतीति-सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों, होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥ ४ ॥


अर्थ 
हे रघुनाथ जी ! हे नाथ ! मेरी विनती है कि इस जीवको दुसरे 
साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, 
उस मूर्खता को आप हर लीजिये ॥१॥

हे राम ! मैं शुभगति, सद्बुद्धि, धन-संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और 
बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता. बस, मेरा तो 
आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक-से-अधिक अनन्य 
और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥२॥

मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस-जिस योनि में ले जाएँ, 
उस-उस योनिमें ही हे नाथ ! जैसे कछुआ अपने अण्डों को 
नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभर के लिए भी अपनी कृपा 
न छोड़ना ॥३॥

हे नाथ ! इस संसारमें जहां तक इस शरीरका (स्त्री-पुत्र-
परिवारादिसे) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही 
स्थान पर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ॥४॥

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