बुधवार, 3 मई 2023

तोटकाष्टकम् .../ आदि शंकराचार्य के शिष्य तोटकाचार्य रचित / स्वर : अक्षरा संस्कृति

 https://youtu.be/FliycbYpYg0  

तोटकाष्टकम् 

विदिताखिलशास्त्रसुधाजलधे 
महितोपनिषत् कथितार्थनिधे । 
हृदये कलये विमलं चरणं 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ १॥

हे पवित्रशास्त्र रूपी सागर के पारखी! महान उपनिषदिक खजाने के प्रदर्शक!
आपके निर्दोष चरणों में मैं अपने हृदय से ध्यान करता हूँ, हे गुरु, शंकर, मुझे 
शरण दीजिये! 
॥ १॥

करुणावरुणालय पालय मां
भवसागरदुःखविदूनहृदम् । 
रचयाखिलदर्शनतत्त्वविदं 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ २॥ 

हे करुणा का सागर! मुझे भवसागर से बचा लो, जिसका हृदय इस मृत्यु लोक 
पर जन्म के दुख से तड़प रहा है! मुझे दर्शनशास्त्र के सभी तत्वों की सच्चाइयों 
को समझाओ!मुझे अपनी शरण दीजिये, हे गुरु, शंकर। ॥ २॥ 

भवता जनता सुहिता भविता 
निजबोधविचारण चारुमते । 
कलयेश्वरजीवविवेकविदं 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ३॥ 

आपने सम्पूर्ण जगत को खुश किया है, हे महान बुद्धि वाले, आत्म-ज्ञान की खोज 
में कुशल! मुझे ईश्वर और आत्मा से संबंधित ज्ञान को समझने दो। मेरी शरण बनिए, 
हे गुरु, शंकर। 
॥ ३॥ 

भव एव भवानिति मे नितरां 
समजायत चेतसि कौतुकिता । 
मम वारय मोहमहाजलधिं 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ४॥

यह जानकर कि आप वास्तव में जगद्गुरु हैं, मेरे हृदय में अपार आनंद उत्पन्न होता है।
मोह के विशाल महासागर से मेरी रक्षा करो। हे गुरु, शंकर, ,मुझे अपनी शरण 
में लीजिये। 
॥ ४॥

सुकृतेऽधिकृते बहुधा भवतो 
भविता समदर्शनलालसता । 
अतिदीनमिमं परिपालय मां 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ५॥

आपके माध्यम से एकता में अंतर्दृष्टि की कामना तभी जन्म लेगी जब पुण्य कर्म 
बहुतायत में और विभिन्न दिशाओं में किए जाएंगे। इस अत्यंत असहाय व्यक्ति की 
रक्षा करें। हे गुरु, शंकर,मुझे अपनी शरण में लीजिये। 
॥ ५॥

जगतीमवितुं कलिताकृतयो 
विचरन्ति महामहसश्छलतः । 
अहिमांशुरिवात्र विभासि गुरो 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ६॥

विश्व को बचाने के लिए महान व्यक्ति विभिन्न रूप धारण करते हैं और अनेकों भेष 
बनाकर घूमते हैं। हे शिक्षक! आप उनमें से भी सूर्य के समान चमकते है। अतः आप 
मेरा आश्रय बने, हे गुरु, शंकर। 
॥ ६॥

गुरुपुंगव पुंगवकेतन ते 
समतामयतां नहि कोऽपि सुधीः । 
शरणागतवत्सल तत्त्वनिधे 
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ७॥

हे श्रेष्ठ गुरु! हे सर्वोच्च गुरु आपके पास वृषध्वज है! कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आपके 
समान नहीं है! हे! शरणागत वत्सल! हे! सत्यरूपी निधी मुझे अपनी शरण दीजिये। हे 
गुरु शंकर। 
॥ ७॥

विदिता न मया विशदैककला 
न च किंचन काञ्चनमस्ति गुरो ।
द्रुतमेव विधेहि कृपां सहजां
भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ८॥

मैं अल्पज्ञानी ज्ञान की एक शाखा भी नहीं समझ नहीं पाता हूँ, मुझ निर्धन के पास 
सम्पति भी नहीं है अर्थात में धन और ज्ञान दोनों रूपों से निर्धन हूँ। अतः हे गुरुदेव मुझे 
अपनी ममतामयी छाया में आश्रय दीजिये, मेरी शरण बनिये, हे गुरु शंकर। ॥ ८॥

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