सोमवार, 16 सितंबर 2024

सौन्दर्य लहरी / आदि शंकराचार्य विरचित / गायन : माधवी मधुकर झा

https://youtu.be/gaxXqlSWaSY  

श्री जगद्गुरु शंकराचार्य ने सौन्दर्यलहरी स्त्रोत में श्री आदि शक्ति मूलमाया एवं 
शुद्ध विध्या का तात्विक, यौगिक, और प्राकृतिक सगुणरूप का, रस्गार्भित, 
भक्तिपूर्ण, व मनोहर वर्णन किया है | भगवत्पाद ने जो अनेक ग्रन्थ तात्विक 
और धार्मिक विषय के लिखे हैं, उनमें ‘सौन्दर्यलहरी’ एक संकीर्ण स्त्रोत है, 
जिस की रचना भगवत्पाद ने बाल्यावस्था में ही की थी।

भुमौस्खलित पादानाम् भूमिरेवा वलम्बनम् ।
त्वयी जाता पराधानाम् त्वमेव शरणम् शिवे ॥
शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि।
अतस्त्वाम् आराध्यां हरि-हर-विरिन्चादिभि रपि
प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथ-मक्र्त पुण्यः प्रभवति ॥१। 
अर्थः -यदि शिव शक्ति से युक्त होकर ही सष्टि करने को शक्तिमान होता है और 
यदि ऐसा न होता तो वह ईश्वर भी स्पन्दित होने को योग्य नहीं था इसलिये तुझे हार 
और ब्रह्मा की भी आराध्य देवता को किसी भी पुण्यहीन मनुष्य में प्रणाम करने अथवा 
स्तुति करने की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
तनीयांसुं पांसुं तव चरण पङ्केरुह-भवं
विरिञ्चिः सञ्चिन्वन् विरचयति लोका-नविकलम् ।
वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां
हरः सङ्क्षुद्-यैनं भजति भसितोद्धूल नविधिम् ॥२॥
अर्थः- " तेरे चरण कमल से उत्पन्न होने वाले छोटे से एक रजकण को चुनकर ब्रह्मा 
विना विकलता के लोक लोकान्तरों की रचना करता रहता है और शेषनाग उसको 
जैसे तैसे अर्थात बडे परिश्रम से सहस्र शिरों पर उठा रहा है । धारण कर रहा है ) 
और हर उसकी भन्म बना कर अपने अंग पर लगाते हैं ॥२॥
अविद्याना-मन्त-स्तिमिर-मिहिर द्वीपनगरी
जडानां चैतन्य-स्तबक मकरन्द श्रुतिझरी ।
दरिद्राणां चिन्तामणि गुणनिका जन्मजलधौ
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु वराहस्य भवति ॥३॥
अर्थः-तू अविद्या में पडे हुओं को हृदयान्धकार को हटाने के लिये (ज्ञानरूपी) सूर्य 
का उद्दीपन करने वाली है, जड मनुष्यों के लिये चैतन्यस्तक्क से निकलने वाले 
मकरन्द के स्रोतों का बारना है, दरिदियों के लिये चिन्तामणियों की माला है और 
जन्ममरण रूपी संगार सागर में इबे हुओं को विष्णु भगवान के वाराहावतार के 
दांत के सदृश उद्धार करने वाली है
त्वदन्यः पाणिभया-मभयवरदो दैवतगणः
त्वमेका नैवासि प्रकटित-वरभीत्यभिनया ।
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वांछासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥४॥
अर्थ:- तेरे सिवाय अन्य सब देवतागण दोनों हाथों के अभिनय से अभयदान और 
वरदान देते हैं। तू हो एक ऐसी है जो अमयदान अथवा वरदान देते समय हाथों का 
अभिनय नहीं करती । भय से आण करने में और बांछा के अनुकूल वर प्रदान करने में 
तेरे दोनों चरण ही निपुण है।
हरिस्त्वामारध्य प्रणत-जन-सौभाग्य-जननीं
पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभ मनयत् ।
स्मरो‌உपि त्वां नत्वा रतिनयन-लेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् ॥५॥
अर्थ:- हरि (विष्णु भगवान ) ने पूर्व काल में, प्रणत जनों को सौभाग्य प्रदान करने वाली 
तेरी आराधना कर के नारी का मोहिनी रूप धारण कर, त्रिपुरारि महादेव के भी चित्त में 
कान का क्षोभ उत्पन्न कर दिया था । और काम देव स्मर भी तुझ को नमन करने के कारण 
ही अपनी पत्नी रति के नयनों द्वारा चुंबन किये जाने वाले शरीर से बडे बडे मुनियों के मी 
अन्त:करण में मोह उत्पन्न कर देता है।
धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्च विशिखाः
वसन्तः सामन्तो मलयमरु-दायोधन-रथः ।
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपां
अपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनङ्गो विजयते ॥६॥
अर्थ:-धनुष्य पुष्पों का बना है, उसकी रस्सी ( ज्या) मारों की बनी है, शब्द स्पर्श रूप रस 
गंध पांच विषय उसके बाण है, वसन्त ऋतु उसका योद्धा सामन्त है, मलयागिरि का शीतल 
मंद सुगधित पवन उसका युद्ध में बैठने का रथ है और वह स्वयं अनंग (शरीर रहित ) है, 
ऐसा कामदेव ऐसे शन्नों को कर सार जगत को अकेला जीत लेता है । हे हिमगिरि सुते ! 
यह सामर्थ्य केवल तेरे कटाक्ष से कुछ थोडी सी ही कृपा प्राप्त करने का फल है।
क्वणत्काञ्ची-दामा करि कलभ कुम्भ-स्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणत शरच्चन्द्र-वदना ।
धनुर्बाणान् पाशं सृ॒णिमपि दधाना करतलैः
पुरस्ता दास्तां नः पुरमथितु राहो-पुरुषिका ॥७॥
अर्थ:- कटि पर कण कण शब्द करने वाले बूंघुरुओं युक्त मेखला बांधे हुए, 
हाथी के बच्चे के मस्तक पर निकले हुए कुंभ सद्दश स्तनों के भार से झुकी हुई, 
मध्य भाग में पतली, शरद प्रतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसे मुख वाली, चारों हायों 
में धनुष, ५ बाण, पाश, और अंकुश धारण किये पुरारि की आहो पुरुषिका हमारे 
सामने ( ध्यान में ) रहें ।
सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविट-पिवाटी-परिवृते
मणिद्वीपे नीपो-पवनवति चिन्तामणि गृहे ।
शिवकारे मञ्चे परमशिव-पर्यङ्क निलयाम्
भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्द-लहरीम् ॥८॥
अर्थः सुधा के समुद्र के मध्य, कल्प वृक्षों की वाटिका से घिरे हुए मणि द्वीप में, 
नीप वृक्षों के उपवन के बीच चिन्ता- मणियों के बने घर में, त्रिकोणाकृति मंच पर, 
परम शिव के पलंग पर विराजमान चिदानन्द लहरी स्वरूप तेरा, कोई बिरले 
मनुष्य भजन करते हैं. वे धन्य हैं।
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वधिष्टाने हृदि मरुत-माकाश-मुपरि ।
मनो‌உपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे स हरहसि पत्या विहरसे ॥९॥
अर्थ:पृथिवी तत्व को मूलाधार में और जल को भी (मूलाधार में ही) मणिपुर में 
अग्नितत्व को जिसकी स्थिति स्वाधिष्टान में है, हृदय में वायु तत्व को और ऊपर 
विशुद्ध चक्र) में आकाश तत्व को, और मन को भी भ्रमध्य में, इस प्रकार सकल 
कुल पथ (शक्ति के मार्ग) का वेध करके तू, सहस्रार पद्म में अपने पति के साथ 
एकान्त में विहार करती है।
सुधाधारासारै-श्चरणयुगलान्त-र्विगलितैः
प्रपञ्चं सिन्ञ्न्ती पुनरपि रसाम्नाय-महसः।
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभ-मध्युष्ट-वलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ॥१०॥
अर्थः - अमृत धाराओं की वर्षा मे, जो तेरे दोनों चरणों के बीच से टपकती है, प्रपंच को 
सींचती हुई फिर छओं आवायों से होती हुई अथवा काओं चक्रों द्वारा सींचती हुई, अपनी 
भूमि पर उत्तरकर अपने आप को सर्पिणी के सदृश साढे तीन कुंडल डालकर, हे 
कुहरिणी! तू कुल कुंड में सोती है।

रविवार, 15 सितंबर 2024

अपनी ज़ुल्फें मेरे शानों पे बिखर जाने दो.../ शायर : नक्श ल्यालपुरी / गायन : वन्दना श्रीनिवासन

https://youtu.be/qbTnHtRgyak 


अपनी ज़ुल्फें मेरे शानों पे बिखर जाने दो    
आज रोको ना मुझे, हद से गुज़र जाने दो
अपनी ज़ुल्फें मेरे शानों पे...

तुम जो आये तो बहारों पे शबाब आया है
इन नज़ारों पे भी हल्का सा नशा छाया है
अपनी आँखों का नशा और भी बढ़ जाने दो
अपनी ज़ुल्फें मेरे शानों पे...

सुर्ख होठों पे गुलाबों का गुमाँ होता है
ऐसा मंज़र हो जहाँ, होश कहाँ रहता है
ये हसीं होंठ मेरे होठों से मिल जाने दो
अपनी ज़ुल्फें मेरे शानों पे...

शनिवार, 14 सितंबर 2024

बंदौ चरन-सरोज तिहारे.../ सूरदास / गायन : स्वर्णिमा गुसांई

https://youtu.be/QUhyxQ5ij-c  

          
बंदौ चरन-सरोज तिहारे।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, ललित त्रिभंगी प्रान-पियारे 
।।

जे पद-पदुम सदा सिव के धन, सिंधु-सुता उर तैं नहिं टारे ।
जे पद-पदुम तात-रिस-त्रासत, मन-बच-क्रम प्रहलाद सँभारे ।।

जे पद-पदुम-परस जल-पावन-सुरसरि-दरस कटत अघ भारे ।
जे पद-पदुम-परस रिषि-पतिनी, बलि, नृग, ब्याध, पतित बहु तारे ।।

जे पद-पदुम रमत बृंदाबन अहि-सिर धरि, अगनित रिपु मारे ।
जे पद-पदुम परसि ब्रज-भामिनी सरबस दै, सुत-सदन बिसारे ।।

जे पद-पदुम रमत पांडव-दल, दूत भए, सब काज सँवारे ।
सूरदास तेई पद-पंकज, त्रिबिध-ताप-दुख-हरन हमारे ।।


     प्राणप्यारे त्रिभंगसुन्दर कमलदललोचन श्यामसुन्दर ! मैं आपके 

चरणकमलों की वन्दना करता हूँ । (प्रभो ! आपके) जो चरणकमल 

भगवान् शंकर के सदा (परम) धन हैं, (जिन्हें) सिन्धुसुता लक्ष्मी जी 

अपने हृदय से कभी दूर नहीं करतीं, (अपने) पिता हिरण्यकशिपु के 

क्रोध से कष्ट पाते हुए भी प्रह्लाद जी ने जिन पादपद्मों को मन, वचन 

और कर्म से सँभाल रखा (घोर कष्ट में भी जिनको वे भूले नहीं), जिन 

पादकमलों के स्पर्श से पवित्र हुआ जल (पादोदक) ही भगवती गंगा हैं, 

जिनका दर्शन करने से ही महान् पाप भी नष्ट हो जाते हैं, जिन चरणों को 

स्पर्श करके ऋषि-पत्नी अहल्या तथा दैत्यराज बलि, राजा नृग, व्याध एवं 

(दूसरे भी) बहुत-से पतित मुक्त हो गये, जो चरणकमल वृन्दावन में विचरण 

करते थे, (जिन्हें) कालियनाग के सिरपर (आपने) धरा और (जिन चरणों से 

व्रज में चलकर) अगणित शत्रुओं का संहार किया, जिन चरणकमलों का 

स्पर्श पाकर व्रजगोपियों ने (उनपर अपना) सर्वस्व न्योछावर कर दिया तथा 

घर-पुत्रादिकों को भी विस्मृत हो गयीं, जिन चरणकमलों से (आप) पाण्डवदल 

में घूमते रहे, उनके दूत बने तथा उनके सब काम बनाये, सूरदास जी कहते हैं 

कि (हे श्यामसुन्दर !) आपके वही चरणकमल हमारे (आधिभौतिक, 

आधिदैविक एवं आध्यात्मिक) तीनों तापों को तथा समस्त दुःखों को हरण 

करनेवाले हैं ।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

आपको भूल जायें हम.../ शायर : तस्लीम फ़ाज़ली / गायन : हिमानी कपूर

https://youtu.be/iJEKrJObgno?si=tnrkG0H5T63txIfu


आपको भूल जाएँ हम इतने तो बेवफ़ा नहीं
आपसे क्या गिला करे आपसे कुछ गिला नहीं

(गिला = शिकायत, उलाहना)

शीशा-ए-दिल को तोड़ना उनका तो एक खेल है
हमसे ही भूल हो गयी उनकी कोई ख़ता नहीं

काश वो अपने ग़म मुझे दे दें तो कुछ सुकूँ मिले
वो कितना बद-नसीब है ग़म भी जिसे मिला नहीं

जुर्म है गर वफ़ा तो क्या क्यूँ मैं वफ़ा को छोड़ दूँ
कहते हैं इस गुनाह की होती कोई सज़ा नहीं

हम तो समझ रहे थे ये तुम मिले प्यार मिल गया
एक तेरे दर्द के सिवा हम को तो कुछ मिला नहीं

-तस्लीम फ़ाज़ली

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

आनन्दलहरी.../ आदिशंकराचार्यविरचित / स्वर : माधवी मधुकर झा

https://youtu.be/rvVu42qH8FU  


भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः

प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पंचभिरपि ।

न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपतिः

तदान्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः ॥ 1॥


घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपि पदैः

विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्र विषयः ।

तथा ते सौंदर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः

कथंकारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे ॥ 2॥


मुखे ते तांबूलं नयनयुगले कज्जलकला

ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता ।

स्फुरत्कांची शाटी पृथुकटितटे हाटकमयी

भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम् ॥ 3॥


विराजन्मंदारद्रुमकुसुमहारस्तनतटी

नदद्वीणानादश्रवणविलसत्कुंडलगुणा

नतांगी मातंगी रुचिरगतिभंगी भगवती

सती शंभोरंभोरुहचटुलचक्षुर्विजयते ॥ 4॥


नवीनार्कभ्राजन्मणिकनकभूषणपरिकरैः

वृतांगी सारंगीरुचिरनयनांगीकृतशिवा ।

तडित्पीता पीतांबरललितमंजीरसुभगा

ममापर्णा पूर्णा निरवधिसुखैरस्तु सुमुखी ॥ 5॥


हिमाद्रेः संभूता सुललितकरैः पल्लवयुता

सुपुष्पा मुक्ताभिर्भ्रमरकलिता चालकभरैः ।

कृतस्थाणुस्थाना कुचफलनता सूक्तिसरसा

रुजां हंत्री गंत्री विलसति चिदानंदलतिका ॥ 6॥


सपर्णामाकीर्णां कतिपयगुणैः सादरमिह

श्रयंत्यन्ये वल्लीं मम तु मतिरेवं विलसति ।

अपर्णैका सेव्या जगति सकलैर्यत्परिवृतः

पुराणोऽपि स्थाणुः फलति किल कैवल्यपदवीम् ॥ 7॥


विधात्री धर्माणां त्वमसि सकलाम्नायजननी

त्वमर्थानां मूलं धनदनमनीयांघ्रिकमले ।

त्वमादिः कामानां जननि कृतकंदर्पविजये

सतां मुक्तेर्बीजं त्वमसि परमब्रह्ममहिषी ॥ 8॥


प्रभूता भक्तिस्ते यदपि न ममालोलमनसः

त्वया तु श्रीमत्या सदयमवलोक्योऽहमधुना ।

पयोदः पानीयं दिशति मधुरं चातकमुखे

भृशं शंके कैर्वा विधिभिरनुनीता मम मतिः ॥ 9॥


कृपापांगालोकं वितर तरसा साधुचरिते

न ते युक्तोपेक्षा मयि शरणदीक्षामुपगते ।

न चेदिष्टं दद्यादनुपदमहो कल्पलतिका

विशेषः सामान्यैः कथमितरवल्लीपरिकरैः ॥ 10॥


महांतं विश्वासं तव चरणपंकेरुहयुगे

निधायान्यन्नैवाश्रितमिह मया दैवतमुमे ।

तथापि त्वच्चेतो यदि मयि न जायेत सदयं

निरालंबो लंबोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ 11॥


अयः स्पर्शे लग्नं सपदि लभते हेमपदवीं

यथा रथ्यापाथः शुचि भवति गंगौघमिलितम् ।

तथा तत्तत्पापैरतिमलिनमंतर्मम यदि

त्वयि प्रेम्णासक्तं कथमिव न जायेत विमलम् ॥ 12॥


त्वदन्यस्मादिच्छाविषयफललाभे न नियमः

त्वमर्थानामिच्छाधिकमपि समर्था वितरणे ।

इति प्राहुः प्रांचः कमलभवनाद्यास्त्वयि मनः

त्वदासक्तं नक्तं दिवमुचितमीशानि कुरु तत् ॥ 13॥


स्फुरन्नानारत्नस्फटिकमयभित्तिप्रतिफल

त्त्वदाकारं चंचच्छशधरकलासौधशिखरम् ।

मुकुंदब्रह्मेंद्रप्रभृतिपरिवारं विजयते

तवागारं रम्यं त्रिभुवनमहाराजगृहिणि ॥ 14॥


निवासः कैलासे विधिशतमखाद्याः स्तुतिकराः

कुटुंबं त्रैलोक्यं कृतकरपुटः सिद्धिनिकरः ।

महेशः प्राणेशस्तदवनिधराधीशतनये

न ते सौभाग्यस्य क्वचिदपि मनागस्ति तुलना ॥ 15॥


वृषो वृद्धो यानं विषमशनमाशा निवसनं

श्मशानं क्रीडाभूर्भुजगनिवहो भूषणविधिः

समग्रा सामग्री जगति विदितैव स्मररिपोः

यदेतस्यैश्वर्यं तव जननि सौभाग्यमहिमा ॥ 16॥


अशेषब्रह्मांडप्रलयविधिनैसर्गिकमतिः

श्मशानेष्वासीनः कृतभसितलेपः पशुपतिः ।

दधौ कंठे हालाहलमखिलभूगोलकृपया

भवत्याः संगत्याः फलमिति च कल्याणि कलये ॥ 17॥


त्वदीयं सौंदर्यं निरतिशयमालोक्य परया

भियैवासीद्गंगा जलमयतनुः शैलतनये ।

तदेतस्यास्तस्माद्वदनकमलं वीक्ष्य कृपया

प्रतिष्ठामातन्वन्निजशिरसिवासेन गिरिशः ॥ 18॥


विशालश्रीखंडद्रवमृगमदाकीर्णघुसृण

प्रसूनव्यामिश्रं भगवति तवाभ्यंगसलिलम् ।

समादाय स्रष्टा चलितपदपांसून्निजकरैः

समाधत्ते सृष्टिं विबुधपुरपंकेरुहदृशाम् ॥ 19॥


वसंते सानंदे कुसुमितलताभिः परिवृते

स्फुरन्नानापद्मे सरसि कलहंसालिसुभगे ।

सखीभिः खेलंतीं मलयपवनांदोलितजले

स्मरेद्यस्त्वां तस्य ज्वरजनितपीडापसरति ॥ 20॥


॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचिता आनंदलहरी संपूर्णा ॥

बुधवार, 11 सितंबर 2024

पानी में मीन पियासी.../ कबीर / गायन : विद्या राव जी

https://youtu.be/UyCWhA24e1g  


पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।

आतम ज्ञान बिना नर भटके, कोई मथुरा कोई काशी।

मिरगा नाभि बसे कस्तूरी, बन बन फिरत उदासी।।

पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।।

जल-बिच कमल कमल बिच कलियाँ तां पर भँवर निवासी।

सो मन बस त्रैलोक्य भयो हैं, यति सती सन्यासी।

पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।।

है हाजिर तेहि दूर बतावें, दूर की बात निरासी।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन भरम न जासी

The Fish are thirsty in the water; this is what makes me laugh. Without self realization, man wanders from Mathura to Kashi like the Kasturi deer who does not realize the intoxicating scent is in its own self and wanders the forest in search of it. 

The One resides in your own self, the one to whom all the saints and seers pray to. Realization is in the moment and not far away. Kabir says, O brethren, without the Guru Man’s

delusion is not removed.

सोमवार, 9 सितंबर 2024

मैंनू तेरा शबाब ले बैठा.../ रचना : स्वर्गीय शिव कुमार बटालवी / गायन : स्वर्गीय असा सिंह

https://youtu.be/D-v4I5ZGXL0?si=Qx1L4HSOVPv5NNZ1 

मैंनू तेरा शबाब ले बैठा,
रंग गोरा गुलाब ले बैठा।।

किन्नी-बीती ते किन्नी बाकी है,
मैंनू एहो हिसाब ले बैठा।।

मैंनू जद वी तूसी तो याद आये,
दिन दिहाड़े शराब ले बैठा।।

चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब ले बैठा।।

रविवार, 8 सितंबर 2024

रुन झुन बजत पग पेंजनी.../ सूरदास / गायन : मुदिता जमारिया

https://youtu.be/Kz0qLo1-gAw 

रुन झुन बजत पग पेंजनी । 
हरि के तन जगमगत बिच बिच जटित कोटि कमनी ॥१॥ 

उठत तान तरंग बिच बिच जमी राग रगनी। 
धरत पग डगमगत आँगन चलत त्रिभुवन धनी ॥२॥

तिलक चारु लिलाट शोभा जात कापै गनी । 
अमी काज मयंक ऊपर मानों बालक फनी ॥३॥

 निरखि बाल विनोद जसुमति होत आनंद घनी ।
 सूर प्रभु पर वारि डारों कोटि मनमथ अनी ॥४॥

गुरुवार, 5 सितंबर 2024

बरसत मेह कोऊ घर से न निकसे.../ कजरी / गायन : सुनन्दा शर्मा

https://youtu.be/DMsvXr43vT8  


बरसत मेह कोऊ घर से न निकसे 
तुमही अनोखे बिदेस जवइया 
भरि आई नदिया, उफन आये नरवा
ऐसे में कोऊ घर से न निकसे 
बरसत मेह कोऊ घर से न निकसे 



बुधवार, 4 सितंबर 2024

टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या.. / परवीन शाकिर / गायन : डाॅ. सोमा घोष

https://youtu.be/UnEvzLx4gAk  


टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या

तुम मौज मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुम को इस से क्या

औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुम को इस से क्या

अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर तुम को इस से क्या

ले जाएँ मुझ को माल-ए-ग़नीमत के साथ अदू
तुम ने तो डाल दी है सिपर तुम को इस से क्या

तुम ने तो थक के दश्त में खे़मे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र तुम को इस से क्या 

मंगलवार, 3 सितंबर 2024

मोरा रे अँगनमा चानन केरि गछिया.../ महाकवि विद्यापति / गायन : चन्दा झा

https://youtu.be/wGwQBN1o7g8  


मोरा रे अँगनमा चानन केरि गछिया, ताहि चढ़ि कुररए काग रे।
सोने चोंच बांधि देव तोहि बायस, जओं पिया आओत आज रे।
गावह सखि सब झूमर लोरी, मयन अराधए जाउं रे।
चओ दिसि चम्पा मओली फूलली, चान इजोरिया राति रे।
कइसे कए हमे मदन अराधव, होइति बड़ि रति साति रे।

रविवार, 1 सितंबर 2024

श्री शिव अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् ..../ स्वर : माधवी मधुकर झा

https://youtu.be/XFhh5CQKSTs 

शिवो महेश्वरः शम्भुः पिनाकी शशिशेखरः ।
वामदेवो विरूपाक्षः कपर्दी नीनीललोहितः ॥१॥ 

शङ्करः शूलपाणिश्च खट्वाङ्गी विष्णुवल्लभः । 
शिपिविष्टोऽम्बिकानाथः श्रीकण्ठो भक्तवत्सलः ॥२॥

भवः शर्वस्त्रिलोकेशः शितिकण्टः शिवाप्रियः ।
उग्रः कपाली कामारिरन्धकासुरसूदनः ॥३॥

 गङ्गाधरो ललाटाक्षः कालकालः कृपानिधिः । 
भीमः परशुहस्तश्च मृगपाणिर्जटाधरः ॥४॥  

कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तकः ।
वृषाङ्की वृषभारूढो भस्मोद्धूलितविग्रहः ॥५॥  

सामप्रियः स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्वरः ।
सर्वज्ञः परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचनः ॥६॥ 

हविर्यज्ञमयः सोमः पञ्चवक्त्रः सदाशिवः ।
विश्वेश्वरो वीरभद्रो गणनाथः प्रजापतिः ॥७॥  

हिरण्यरेता दुर्धर्षो गिरीशो गिरिशोऽनघः ।
भुजङ्गभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रियः ॥८॥ 

कृत्तिवासाः पुरारातिर्भगवान् प्रमथाधिपः। 
मृत्युञ्जयः सूक्ष्मतनुर्जगद्व्यापी जगद्गुरुः ॥९॥  

व्योमकेशो महासेनजनकश्चारुविक्रमः। 
रुद्रो भूतपतिः स्ताणुरहिर्बुध्न्यो दिगम्बरः ॥१०॥  

अष्टमूर्तिरनेकात्मा सात्विकः शुद्धविग्रहः।
शाश्वतः खण्डपरशूरजः पाशविमोचनः ॥११॥  

मृडः पशुपतिर्देवो महादेवोऽव्ययो हरिः। 
पूषदन्तभिदव्यग्रो दक्षाध्वरहरो हरः ॥१२॥

भगनेत्रभिदव्यक्तः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
अपवर्गप्रदोऽनन्तस्तारकः परमेश्वरः ॥१३॥