चन्द कंवल तुलसी पे...
-अरुण मिश्र
कल्पना-तुलसी के दल, तुलसी पे।
भावना-गंगा का जल, तुलसी पे।।
शब्द-अक्षत के संग, समर्पित हैं।
छन्द के, चन्द कंवल, तुलसी पे।।
है ये श्रद्धा, ढली जो, ’शेरों में।
कौन कहता है ग़ज़ल, तुलसी पे।।
सादगी से कहो, जो बात कहो।
लीजिये इसकी नकल, तुलसी पे।।
ज्ञान, वैराग्य, भक्ति औ’ दर्शन।
किस पहेली का,न हल, तुलसी पे।।
बातें, जो हैं कठिन, किताबों में।
वो लगें, कितनी सहल, तुलसी पे।।
यूँ ही हुलसी नहीं थीं, माँ उनकी।
कौन हुलसे न, अमल तुलसी पे।।
राम तो, खुद ही, खिंचे आये हैं।
एक भौंरे से, कमल तुलसी पे।।
पैठिये आप ‘अरुन’, मानस में।
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