मंदिरों में हों अज़ानें मस्जिदों में घंटियाँ
-अरुण मिश्र
मंदिरों में हों अज़ानें , मस्जिदों में घंटियाँ।
तब मैं मानूँगा कि सचमुच एक हैं अल्ला मियाँ।।
जब कि ये दुनिया सिमट कर,गाँव इक होने को है।
तब ये कैसा बचपना, सबकी अलग हों बस्तियाँ ??
जो न हों देतीं बुलन्दी आपके क़िरदार को।
हो नहीं सकतीं कभी ज़ायज़ हैं, वो पाबन्दियाँ।।
तुम, बनाने वाले की नज़रों से जो देखो ‘अरुन’।
ना तो वो ही म्लेच्छ हैं, ना ये ही हैं काफ़िर मियाँ।।
मंदिरों में हों अज़ानें , मस्जिदों में घंटियाँ।
तब मैं मानूँगा कि सचमुच एक हैं अल्ला मियाँ।।
जब कि ये दुनिया सिमट कर,गाँव इक होने को है।
तब ये कैसा बचपना, सबकी अलग हों बस्तियाँ ??
जो न हों देतीं बुलन्दी आपके क़िरदार को।
हो नहीं सकतीं कभी ज़ायज़ हैं, वो पाबन्दियाँ।।
तुम, बनाने वाले की नज़रों से जो देखो ‘अरुन’।
ना तो वो ही म्लेच्छ हैं, ना ये ही हैं काफ़िर मियाँ।।
सुखद अनुभूति हुई इस ब्लाग पर आ कर....।
जवाब देंहटाएंसद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है.एक अच्छी और सार्थक ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई....."ओमप्रकाश यती"
जवाब देंहटाएंBeautiful thinking !
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