कोई शम्मा तो अरुन रौशन करो
- अरुण मिश्र
हँस के झेले, ज़ीस्त के भाले बहुत।
हमने भी काग़ज़ किये काले बहुत।।
सर्फ़ की हमने भी है, कुछ रौशनाई।
और ख़त, ख़ामा के घिस डाले बहुत।।
चप्पा-चप्पा सहरा का है जानता।
क्यूँ हैं मेरे पाँव में छाले बहुत।।
छूट करके फिर फँसा, अक्सर हूँ मैं।
बुनती हैं दुश्वारियाँ, जाले बहुत।।
कोई शम्मा तो ’अरुन’ रौशन करो।
आयेंगे ख़ुद, चाहने वाले बहुत।।
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