मित्रों, गत 25 दिसम्बर, 2012, मंगलवार की पोस्ट में
प्रकाशित प्रत्युत्तर के क्रम में लिखित पाती, वादे के मुताबिक़,
यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये उत्तर-प्रत्युत्तर क्रमशः कुछ ही दिनों
के अन्तराल में लिखे गए हैं, अतः इनका वास्तविक रस और
आनंद, इन्हें तारतम्यता में पढ़ने में ही मिलता है। भावुकता
और रूमानियत का ज़बाब भावुकता और रूमानियत ही हैं ।
नव-वर्ष की ढेर सारी शुभकामनायें।
-अरुण मिश्र.
पाती प्रत्युत्तर की प्रेषित है सस्नेह......
-अरुण मिश्र.
ओ! मेरे आराध्य कि,
अपनी राधा के घनश्याम।
अपना आँचल ले माथे पर,
तुमको नम्र प्रणाम।
इन अनगिनत व्यथाओं में,
लिक्खूँ क्या, कितना, कैसे?
चू-चू कर आँखों से आँसू ,
रखते पूर्ण - विराम।।
प्रिय, तुम्हारी कामनायें, कल्पनायें,
सत्य हों, फूलें-फलें, आकाश चूमें।
जि़न्दगी के, और बगिया में तुम्हारी,
बौर आये, नित्य मधु-मधुमास झूमे।
कीर्ति की, जग में, तुम्हारी कौमुदी,
फैल जाये दृष्ट-क्षिति के छोर तक;
और ले कर के तुम्हारी यश-सुरभि,
सांध्य का चंचल, युवा वातास घूमे।।
हूँ नहीं विस्मृत तुम्हें, सन्तोष मुझको;
व्यस्तताओं में भी, तुमको याद आती।
बस यही अवलम्ब लेकर जी रही मैं;
साँस की माला पिरोती नित्य जाती।
मधु-अनृत ने काम मरहम का किया है;
दूर, मेरी हो गईं, सारी गिलायें;
जान कर के भी कि यह है वंचना,
सौंपती विश्वास, ओ! विश्वासघाती।।
किन्तु इसका अर्थ यह किंचित नहीं है,
आस्था को वंचना दे कर वसूलो।
दे प्रलोभन, आश्वासन अमरता का,
मर्त्य-जग के नेह का अस्तित्व भूलो।
हों तुम्हारे गीत, मेरी ज़िन्दगी का बोध,
औ’ तुम्हारा राग, मेरे प्राण का सरगम;
और, मेरे तार तन्त्री के तभी काँपें,
जब कि अपनी अँगुलियों से तुम उन्हें छू लो।।
अस्तु , सम्प्रति मात्र इतना ही लिखूँगी,
हो सुमंगलमय तुम्हारा हर सबेरा।
भाग्य के हर रेख में भर दे तुम्हारे,
स्वर्णवर्णी रंग, प्रिय विधि का चितेरा।
बँध गई है गाँठ जो, खुलने न पाये;
अन्य कोई पड़ न जाये, ध्यान रखना;
सर्व उपमायोग्य श्री - चरणाम्बुजों में,
एक बार पुनश्च नम्र प्रणाम मेरा।।
*
प्रकाशित प्रत्युत्तर के क्रम में लिखित पाती, वादे के मुताबिक़,
यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये उत्तर-प्रत्युत्तर क्रमशः कुछ ही दिनों
के अन्तराल में लिखे गए हैं, अतः इनका वास्तविक रस और
आनंद, इन्हें तारतम्यता में पढ़ने में ही मिलता है। भावुकता
और रूमानियत का ज़बाब भावुकता और रूमानियत ही हैं ।
नव-वर्ष की ढेर सारी शुभकामनायें।
-अरुण मिश्र.
पाती प्रत्युत्तर की प्रेषित है सस्नेह......
-अरुण मिश्र.
ओ! मेरे आराध्य कि,
अपनी राधा के घनश्याम।
अपना आँचल ले माथे पर,
तुमको नम्र प्रणाम।
इन अनगिनत व्यथाओं में,
लिक्खूँ क्या, कितना, कैसे?
चू-चू कर आँखों से आँसू ,
रखते पूर्ण - विराम।।
प्रिय, तुम्हारी कामनायें, कल्पनायें,
सत्य हों, फूलें-फलें, आकाश चूमें।
जि़न्दगी के, और बगिया में तुम्हारी,
बौर आये, नित्य मधु-मधुमास झूमे।
कीर्ति की, जग में, तुम्हारी कौमुदी,
फैल जाये दृष्ट-क्षिति के छोर तक;
और ले कर के तुम्हारी यश-सुरभि,
सांध्य का चंचल, युवा वातास घूमे।।
हूँ नहीं विस्मृत तुम्हें, सन्तोष मुझको;
व्यस्तताओं में भी, तुमको याद आती।
बस यही अवलम्ब लेकर जी रही मैं;
साँस की माला पिरोती नित्य जाती।
मधु-अनृत ने काम मरहम का किया है;
दूर, मेरी हो गईं, सारी गिलायें;
जान कर के भी कि यह है वंचना,
सौंपती विश्वास, ओ! विश्वासघाती।।
किन्तु इसका अर्थ यह किंचित नहीं है,
आस्था को वंचना दे कर वसूलो।
दे प्रलोभन, आश्वासन अमरता का,
मर्त्य-जग के नेह का अस्तित्व भूलो।
हों तुम्हारे गीत, मेरी ज़िन्दगी का बोध,
औ’ तुम्हारा राग, मेरे प्राण का सरगम;
और, मेरे तार तन्त्री के तभी काँपें,
जब कि अपनी अँगुलियों से तुम उन्हें छू लो।।
अस्तु , सम्प्रति मात्र इतना ही लिखूँगी,
हो सुमंगलमय तुम्हारा हर सबेरा।
भाग्य के हर रेख में भर दे तुम्हारे,
स्वर्णवर्णी रंग, प्रिय विधि का चितेरा।
बँध गई है गाँठ जो, खुलने न पाये;
अन्य कोई पड़ न जाये, ध्यान रखना;
सर्व उपमायोग्य श्री - चरणाम्बुजों में,
एक बार पुनश्च नम्र प्रणाम मेरा।।
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