ग़ज़ल
ऐ! अरुन हुशियार.....
-अरुण मिश्र.
फूल कर कुप्पा गधा हैरत से; ये क्या माज़रा ?
लगता है मैदान सब बैसाख में मैंने चरा।।
ख़ुशफ़हम बीनाई उनकी, दीठ उनकी बाकमाल।
सावनी अंधों को सूझे, चार-सू आलम, हरा।।
अगर अल्ला मेह्रबां, तो है गधा भी पेहलवां।
खा के हलुआ मस्त है, दाने बिना घोड़ा मरा।।
आस्तीं में पल रहे हैं, बाँबियों को छोड़ कर।
सिर्फ़ डसने के लिये, है भेस इन्सां का धरा।।
लो! छछुंदर, डाल कर सर पे चमेली, चल पड़ी।
ऐ! ‘अरुन’ हुशियार, तिरछी चाल से बचियो जरा।।
*
ऐ! अरुन हुशियार.....
-अरुण मिश्र.
फूल कर कुप्पा गधा हैरत से; ये क्या माज़रा ?
लगता है मैदान सब बैसाख में मैंने चरा।।
ख़ुशफ़हम बीनाई उनकी, दीठ उनकी बाकमाल।
सावनी अंधों को सूझे, चार-सू आलम, हरा।।
अगर अल्ला मेह्रबां, तो है गधा भी पेहलवां।
खा के हलुआ मस्त है, दाने बिना घोड़ा मरा।।
आस्तीं में पल रहे हैं, बाँबियों को छोड़ कर।
सिर्फ़ डसने के लिये, है भेस इन्सां का धरा।।
लो! छछुंदर, डाल कर सर पे चमेली, चल पड़ी।
ऐ! ‘अरुन’ हुशियार, तिरछी चाल से बचियो जरा।।
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