चलो ये रूप का दर्या उतर के देखते हैं....
-अरुण मिश्र
चलो, ये रूप का दर्या उतर के देखते हैं।
जो तय है डूबना तो, डूब कर के देखते हैं।।
सुना है, बाग़ में रुख़ से नक़ाब पलटेगा।
तो चलो आज, नज़ारे उधर के देखते हैं।।
सुना है हॅस दे तो, बाग़ों में बहार आ जाये।
चलो ख़िज़ाँ को आज, तंग कर के देखते हैं।।
सुना है, मोरनी मरती है, चाल पर उसकी।
सुना है हँस भी, अचरज से भर के देखते हैं।।
अगर नहाये तो,झीलों में कँवल खिल जायें।
कि, भौंरे राह बहुत आस भर के देखते हैं।।
सुना कि, सुब्ह को सूरज गुलाल मलता है।
सितारे, रात उसकी माँग भर के देखते हैं।।
कलायें चाँद की, शायद इसी ख़याल से हैं।
कि चलो, रूप उसका नाप कर के देखते हैं।।
सुना है, बिखरें जो गेसू तो, रात हो जाये।
तो चलो एक रात, वाँ ठहर के देखते हैं।।
सुना है सोये रात, जागे सुब्ह हो जाये।
तो चलो एक शाम, सुब्ह कर के देखते हैं।।
सुना है, ख़्वाब है, जागो तो बिखर जायेगा।
सो सारी रात, पलक बन्द कर के देखते हैं।।
सुना कि, मद भरे नयनों में, मैक़दे हैं खुले।
सुना है, लोग अपने जाम भर के देखते हैं।।
सुना है , हूर है, मिलता है बस सवाबों से।
तो चलो कोई, नेक काम कर के देखते हैं।।
सुना है, आँखों में उसके,तिलिस्म बसते हैं।
‘अरुन’ चलो, नये एहसास कर के देखते हैं।।
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