https://youtu.be/v-jL8YpT-PA
मोहन उप्रेती (१९२८-१९९७) एक भारतीय थियेटर निर्देशक, नाटककार और संगीतकार थे।
भारतीय थिएटर संगीत में उनका प्रमुख योगदान रहा है। उप्रेती को अपने गीत "बेड़ू पाको
बारमासा" के लिए जाना जाता है।
मोहन उप्रेती को कुमाऊँनी लोक संगीत के पुनरोद्धार के प्रति उनके विशाल योगदान के लिए,
और पुराने कुमाऊँनी गाथाओं, गीतों और लोक परंपराओं के संरक्षण के प्रति उनके प्रयासों के
लिए याद किया जाता है।
मोहन उप्रेती का जन्म १९२८ में अल्मोड़ा में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं से
ही प्राप्त की थी। वह ट्रेड यूनियन नेता पूरन चन्द जोशी से बहुत प्रभावित हुए थे, और उन्हें
अपना गुरु मानते थे। ४० के दशक में इलाहबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन करते समय ही
उन्होंने 'लोक कलाकार संघ' नामक नाट्य संघ का गठन किया।
१९४० तथा ५० के दशक में मोहन उप्रेती ने ब्रजमोहन शाह के साथ सम्पूर्ण उत्तराखण्ड
क्षेत्र की यात्रा की। इस यात्रा में ही उन्होंने इस क्षेत्र के तेजी से गायब हो रहे लोक लोकगीतों,
धुनों और परंपराओं को एकत्रित किया। उन्होंने पारंपरिक राम-लीला नाटकों को पुनर्जीवित
कर शहरी श्रोताओं के समक्ष लाने के लिए भी कई सालों तक काम किया।
मोहन उप्रेती द्वारा १९६८ में पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की गई। वह बाद में कई वर्षों
तक दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में शिक्षक भी रहे।
१९८० में प्रकाशित 'राजुला मालशही' महाकाव्य पर आधारित एक नाटक उनका सबसे
महत्वपूर्ण काम माना जाता है। उनके अन्य महत्वपूर्ण नाटक 'नंदा देवी जागर',
'सीता स्वयंवर' और 'हरु हिट' हैं।
८० की कई टेलीविजन प्रस्तुतियों के लिए भी उन्होंने संगीत दिया, जिसमें रस्किन बॉण्ड की
कहानी, 'एक था रास्टी', पर आधारित एक श्रृंखला भी शामिल थी। उनकी रचनाओं को
विशिष्ट कुमाउँनी लोक स्पर्श के लिए भी जाना जाता था। हर वर्ष उनकी जयंती पर उनके
द्वारा स्थापित संस्था 'पर्वतीय कला केंद्र' एक नया नाटक प्रस्तुत करती है।
२००४ में, मोहन उप्रेती के निर्मित गीत, "बेड़ू पाको बारमासा" को प्रसून जोशी द्वारा
कोका-कोला के विज्ञापन "ठंडा मतलब कोका कोला" में प्रयोग किया गया था। विज्ञापन में
एक "पहाड़ी गाइड" इस धुन को गुनगुनाता हुआ दिखाया गया है। यह कुमाऊं रेजिमेंट का
मार्चिंग गीत भी है।
२००६ में, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने थियेटर आलोचक, दिवान सिंह बजेली द्वारा लिखी गई
उनकी आत्मकथा प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, "मोहन उप्रेती - द मैन एंड हिस आर्ट"।
भारतीय थिएटर संगीत में उनका प्रमुख योगदान रहा है। उप्रेती को अपने गीत "बेड़ू पाको
बारमासा" के लिए जाना जाता है।
मोहन उप्रेती को कुमाऊँनी लोक संगीत के पुनरोद्धार के प्रति उनके विशाल योगदान के लिए,
और पुराने कुमाऊँनी गाथाओं, गीतों और लोक परंपराओं के संरक्षण के प्रति उनके प्रयासों के
लिए याद किया जाता है।
मोहन उप्रेती का जन्म १९२८ में अल्मोड़ा में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं से
ही प्राप्त की थी। वह ट्रेड यूनियन नेता पूरन चन्द जोशी से बहुत प्रभावित हुए थे, और उन्हें
अपना गुरु मानते थे। ४० के दशक में इलाहबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन करते समय ही
उन्होंने 'लोक कलाकार संघ' नामक नाट्य संघ का गठन किया।
१९४० तथा ५० के दशक में मोहन उप्रेती ने ब्रजमोहन शाह के साथ सम्पूर्ण उत्तराखण्ड
क्षेत्र की यात्रा की। इस यात्रा में ही उन्होंने इस क्षेत्र के तेजी से गायब हो रहे लोक लोकगीतों,
धुनों और परंपराओं को एकत्रित किया। उन्होंने पारंपरिक राम-लीला नाटकों को पुनर्जीवित
कर शहरी श्रोताओं के समक्ष लाने के लिए भी कई सालों तक काम किया।
मोहन उप्रेती द्वारा १९६८ में पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की गई। वह बाद में कई वर्षों
तक दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में शिक्षक भी रहे।
१९८० में प्रकाशित 'राजुला मालशही' महाकाव्य पर आधारित एक नाटक उनका सबसे
महत्वपूर्ण काम माना जाता है। उनके अन्य महत्वपूर्ण नाटक 'नंदा देवी जागर',
'सीता स्वयंवर' और 'हरु हिट' हैं।
८० की कई टेलीविजन प्रस्तुतियों के लिए भी उन्होंने संगीत दिया, जिसमें रस्किन बॉण्ड की
कहानी, 'एक था रास्टी', पर आधारित एक श्रृंखला भी शामिल थी। उनकी रचनाओं को
विशिष्ट कुमाउँनी लोक स्पर्श के लिए भी जाना जाता था। हर वर्ष उनकी जयंती पर उनके
द्वारा स्थापित संस्था 'पर्वतीय कला केंद्र' एक नया नाटक प्रस्तुत करती है।
२००४ में, मोहन उप्रेती के निर्मित गीत, "बेड़ू पाको बारमासा" को प्रसून जोशी द्वारा
कोका-कोला के विज्ञापन "ठंडा मतलब कोका कोला" में प्रयोग किया गया था। विज्ञापन में
एक "पहाड़ी गाइड" इस धुन को गुनगुनाता हुआ दिखाया गया है। यह कुमाऊं रेजिमेंट का
मार्चिंग गीत भी है।
२००६ में, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने थियेटर आलोचक, दिवान सिंह बजेली द्वारा लिखी गई
उनकी आत्मकथा प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, "मोहन उप्रेती - द मैन एंड हिस आर्ट"।
बृज मोहन शाह (१९३३ -१९९८ ), जिन्हें बीएम शाह के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय
थिएटर निर्देशक और नाटककार थे। शाह को मोहन उप्रेती के साथ मिलकर उत्तराखंड में थिएटर
के पुनरुद्धार का श्रेय दिया जाता है । १९७९ में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
किया गया ।
बृज मोहन शाह का जन्म १९३३ में नैनीताल में हुआ था, उन्होंने १९६० में राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय (एनएसडी), नई दिल्ली में प्रवेश लिया, और इब्राहिम अल्काज़ी के अधीन
प्रशिक्षण लिया, और बाद में १९६२ में स्नातक किया।
उन्हें उनके नाटकों, के लिए याद किया जाता है, और उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक व्यंग्य
नाटक 'त्रिशंकु' (1967) था।
उन्होंने भारतेंदु नाट्य अकादमी (बीएनए) लखनऊ और श्री राम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग
आर्ट्स रिपर्टरी कंपनी के लिए नाटक का निर्देशन भी किया।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (नई दिल्ली) के निदेशक बनने से पहले शाह कई वर्षों तक
सेंट कोलंबिया स्कूल, दिल्ली में एक प्रसिद्ध संस्कृत शिक्षक भी थे । 5 जून 1998 को
लखनऊ में उनका निधन हो गया।
जब वे भारतेंदु नाट्य अकादमी (बीएनए) के निदेशक थे । उनकी मृत्यु पर, उत्तर प्रदेश
संगीत नाटक अकादमी द्वारा 'बीएम शाह पुरस्कार' का गठन किया गया था, जो प्रत्येक
वर्ष रंगमंच के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है। और बीएनए लखनऊ में
गोमती नगर में उनके नाम से "बीएम शाह सभागार " है।
थिएटर निर्देशक और नाटककार थे। शाह को मोहन उप्रेती के साथ मिलकर उत्तराखंड में थिएटर
के पुनरुद्धार का श्रेय दिया जाता है । १९७९ में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
किया गया ।
बृज मोहन शाह का जन्म १९३३ में नैनीताल में हुआ था, उन्होंने १९६० में राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय (एनएसडी), नई दिल्ली में प्रवेश लिया, और इब्राहिम अल्काज़ी के अधीन
प्रशिक्षण लिया, और बाद में १९६२ में स्नातक किया।
उन्हें उनके नाटकों, के लिए याद किया जाता है, और उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक व्यंग्य
नाटक 'त्रिशंकु' (1967) था।
उन्होंने भारतेंदु नाट्य अकादमी (बीएनए) लखनऊ और श्री राम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग
आर्ट्स रिपर्टरी कंपनी के लिए नाटक का निर्देशन भी किया।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (नई दिल्ली) के निदेशक बनने से पहले शाह कई वर्षों तक
सेंट कोलंबिया स्कूल, दिल्ली में एक प्रसिद्ध संस्कृत शिक्षक भी थे । 5 जून 1998 को
लखनऊ में उनका निधन हो गया।
जब वे भारतेंदु नाट्य अकादमी (बीएनए) के निदेशक थे । उनकी मृत्यु पर, उत्तर प्रदेश
संगीत नाटक अकादमी द्वारा 'बीएम शाह पुरस्कार' का गठन किया गया था, जो प्रत्येक
वर्ष रंगमंच के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है। और बीएनए लखनऊ में
गोमती नगर में उनके नाम से "बीएम शाह सभागार " है।
बेडु पाको बारमासा... (हिन्दी: पहाड़ी अंजीर वर्ष भर पकते हैं),
उत्तराखण्ड का एक प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोकगीत है, जिसके रचयिता
स्व. बृजेन्द्र लाल शाह हैं। मोहन उप्रेती तथा बृजमोहन शाह द्वारा संगीतबद्ध
यह गीत दुनिया भर में उत्तराखण्डियों द्वारा सुना जाता है। राग दुर्गा पर
आधारित इस गीत को पहली बार वर्ष १९५२ में राजकीय इण्टर कॉलेज,
नैनीताल के मंच पर गाया गया।बाद में इसे दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में
एक अन्तर्राष्ट्रीय सभा के सम्मान में प्रदर्शित किया गया, जिससे इसे
अधिक प्रसिद्धि मिली। उस सभा में एचएमवी द्वारा बनाये गए इस गीत
की रिकॉर्डिंग समस्त मेहमानों को स्मारिका के रूप में भी दी गयी थीं।
यह भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू के पसंदीदा गीतों में से था।
उत्तराखण्ड का एक प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोकगीत है, जिसके रचयिता
स्व. बृजेन्द्र लाल शाह हैं। मोहन उप्रेती तथा बृजमोहन शाह द्वारा संगीतबद्ध
यह गीत दुनिया भर में उत्तराखण्डियों द्वारा सुना जाता है। राग दुर्गा पर
आधारित इस गीत को पहली बार वर्ष १९५२ में राजकीय इण्टर कॉलेज,
नैनीताल के मंच पर गाया गया।बाद में इसे दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में
एक अन्तर्राष्ट्रीय सभा के सम्मान में प्रदर्शित किया गया, जिससे इसे
अधिक प्रसिद्धि मिली। उस सभा में एचएमवी द्वारा बनाये गए इस गीत
की रिकॉर्डिंग समस्त मेहमानों को स्मारिका के रूप में भी दी गयी थीं।
यह भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू के पसंदीदा गीतों में से था।
यह एक गढ़वाली कुमाऊनी लोक गीत है, जो उस अंचल में प्रचलित
लोक गीतों में प्रमुख है। इस लोक गीत में पत्नी अपने पति से विभिन्न
उदाहरणों को प्रस्तुत करके अपने मायके जाने के लिए तार्किक दबाव
बनाती है। वह कहती है की बेड़ू का फल तो बारह महीने उपलब्ध होता है
पर काफल (एक चेरी जैसा मीठा फल) तो चैत्र मॉस में ही पकता है।
ये फल मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में ही उपलब्ध होते हैं। बेडू और कफल के
फल का उदाहरण देकर नायिका अपने घर जाने के बारे में बताती है।
लोक गीतों में प्रमुख है। इस लोक गीत में पत्नी अपने पति से विभिन्न
उदाहरणों को प्रस्तुत करके अपने मायके जाने के लिए तार्किक दबाव
बनाती है। वह कहती है की बेड़ू का फल तो बारह महीने उपलब्ध होता है
पर काफल (एक चेरी जैसा मीठा फल) तो चैत्र मॉस में ही पकता है।
ये फल मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में ही उपलब्ध होते हैं। बेडू और कफल के
फल का उदाहरण देकर नायिका अपने घर जाने के बारे में बताती है।
बेडु पाको बारा मासा,
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरीना काफ़ल पाको, चैता, मेरी छैला,
ओ नरणी काफ़ल पाको चैत मेरी छैला।
बेडू : यह भी एक तरह का चेरी जैसा फल ही होता है।
काफ़ल : एक तरह का वाइल्ड चेरी फल।
पाको : - पक गया है।
नरणी : नायिका के लिए नाम का सम्बोधन।
बेडू (एक फल) बारह महीनों में पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है, जबकि
काफल का फल तो चैत्र मॉस (बसंत) में ही पकता है।
भुण-भुण दीन आयो,
नरणा, बुझ तेरी मैत मेरी छैला
ओ नरणी कफल पाको, चैता, मेरी छैला।
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरणी काफल पाको चैत मेरी छैला।
बसंत के दिन आ गए हैं, मुझे मेरे माता के घर पर ले चलो। बेडू (एक फल)
बारह महीनों में पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है, जबकि कफल का फल
तो चैत्र मास (बसंत) में ही पकता है। )
अल्मोड़ा का लाल बाजारा,
लाल माटी की सीड़ी
अल्मोड़ा का लाल बाजारा,
नैरेना लाल माटी की सीड़ी मेरी छैला,
ओ नरणी कफल पाको, चैता, मेरी छैला।
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरणी काफल पाको चैत मेरी छैला।
अल्मोड़ा का लाल बाज़ार (विख्यात होने के भाव में ) में लाल मिटटी की सीढ़ियां हैं।
बेडू (एक फल) बारह महीनों में पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है, जबकि कफल का
फल तो चैत्र मास (बसंत) में ही पकता है। )
अल्मोड़ा की नंदा देवी,
अल्मोड़ा की नंदा देवी,
ओ नरन फूल छढूनी पाती मेरी छैला,
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरणी कफल पाको चैत मेरी छैला।
पहाड़ों की देवी नंदा है लोग उसे फूल और पत्तियां अर्पित करते हैं/चढ़ाते हैं।
बेडू (एक फल) बारह महीनों में पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है, जबकि
कफल का फल तो चैत्र मास (बसंत) में ही पकता है। )
आप खाणी (खाँछे) पान सुपारी,
आप खाणी पान सुपारी,
ओ नरन मइके दीनी बीड़ी मेरी छैला,
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरणी कफल पाको चैत मेरी छैला।
आप पान सुपारी खाते हो और मुझे बीड़ी दी है। यहाँ पर बीड़ी
और पान के आनंद लेने पर दोनों का संवाद है। बेडू (एक फल) बारह महीनों
में पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है, जबकि कफल का फल तो चैत्र मास
(बसंत) में ही पकता है। )
रुण झुन दिन आयगी,
रुण झुन दिन आयगी,
ओ नरीना मैं ते तू भूलिगी चैता, मेरी छैला,
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरणी कफल पाको चैत मेरी छैला।
सुहाने दिन आ गए हैं, ओह मैं तो तुम्हे भूल ही गई।
बेडू (एक फल) बारह महीनों में पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है,
जबकि कफल का फल तो चैत्र मास (बसंत) में ही पकता है। )
त्यार खुटामा काँटो बुड्या
नरणा, मेरी खुटी पीड़ा मेरी छैला
बेडु पाको बारा मासा,
ओ नरणी कफल पाको चैत मेरी छैला।
अगर कोई कांटा आपके पैर को चुभता है, बेडू (एक फल) बारह महीनों में
पककर हर वक़्त उपलब्ध होता है, जबकि कफल का फल तो चैत्र मास
(बसंत) में ही पकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें