गोपसदनगुर्वलिंदखेलन । बलवत्स्तुतिते न निंद जय-जय॥३II
भावार्थ में सहायक शब्दार्थ
'पुलिंद' के बजाय 'पुलिन' पढ़ें यह समझ में आता है। 'पुलिन' का अर्थ है नदी के किनारे का रेतीला किनारा। 'कालिंदी–तट-पुलिन-लांच्छित' का अर्थ है यमुना के तट पर रेत से लथपथ शरीर।
सुरनुतपादारविंद -जिसके चरण कमलों में देवता नत (नतमस्तक) हैं.
राधाधरमधुमिलिंद का अर्थ है राधा-अधर-मधु-मिलिंद, राधा के अधर का मधु पीने वाला भ्रमर।
'उद्धृतनग' का अर्थ है (गोवर्धन) पर्वतों को उठाने वाला।
मध्वरिंदमानघ - मधु-अरिंदम-अनघ।
अरि = शत्रु। मधु राक्षस का शमन करने वाली और अघ (पाप) से रहित है।
सत्यपंडपटकुविन्द - सत्यप-अण्ड-पट-कुविंद अंडपट = विश्वरूपी कपड़ा (ब्रह्मांड में अंडा)। कुविन्द = बुनकर। सत्य के संरक्षक और विश्वरूपी वस्त्र के बुनकर।
भाव-गीत 'धागा धागा अखंड बीनूं' को आप इसी अर्थ के साथ जानते हैं।
गोपसदनगुर्वलिंदखेलन - गोपसदन-गुरु-अलिन्द-खेलन।
अलिन्द = प्रांगण। गोप-सदन और गुरु के प्रांगण में एक खिलाड़ी।
बलवत्स्तुतिते न निंद = बलवत्स्तुति को कम मत समझो (बलवंत, यह स्तवन स्वयं नाटककार किर्लोस्कर द्वारा किया गया है)।
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