मधु-रजनी
- अरुण मिश्र.
आज सुहानी रात, सुन्दरी,
सिहर रहे तरु पात, सुन्दरी ।
फूली आशाओं की बगिया ,
फलती मन की बात, सुन्दरी ।।
तुममें और प्रकृति में देखो
कैसा साम्य सजा है, रानी ।
जो मेरे-तेरे मन में है ,
रात रचाती, वही कहानी ।।
नभ-गंगा का मनहर पनघट ,
सलज निशा, लेकर यौवन-घट ।
गूँथ केश, तारक-कलिकायें,
नुपुर से मुखरित करती तट ।।
मधुर चाँद चेहरा है जिसका ,
उमर , उमंगें , सब कुछ, नटखट ।
जाने क्यूँ डाले है फिर भी ,
झीने बादल वाला घूँघट ??
किन्तु , हवा क्या कम शरारती ?
हटा रही है पल-पल अंचल ।
बढ़ी जा रही है मधु-रजनी ,
धरती डगमग, पग प्रति, चंचल ।।
श्यामल-श्यामल मेघ-खंड दो ,
लगा रहे हैं , काजल काले ।
राका के स्वप्निल नयनों में ,
जगा रहे हैं , सपन निराले ।।
चूनर, धवल उजास, सुन्दरी।
तारक, हीरक-हास , सुन्दरी ।
आज लगा हो, ज्यूँ पूनम को,
सोलहवाँ मधुमास सुन्दरी ।।
क्यूँ इतना शरमाई यामिनि?
झिझक-झिझक बढ़ रही ठगी सी ।
प्राची में प्रीतम का घर है ,
प्रात मिलेगी, प्रीति पगी सी ।।
यह शायद अभिसार प्रथम है ,
पथ मुदमंगल, मृदुल कुसुम हो ।
मेरी तो यामिनि, निशि, राका ,
रजनी , तारक , चंदा तुम हो ।।
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें