शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

कभी ऐ हकीकत-ए-मुन्तज़र...../ 'इकबाल' / राहत फ़तेह अली ख़ान

https://youtu.be/Bh3nlxhEsm0 

कभी ऐ हकीकत-ए-मुन्तज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में 
की  हज़ारों सजदे तड़प रहे हैं तेरी ज़बीं-ए-नियाज़ में
[हकीकत-ए-मुन्तज़र = The Awaited Reality;  लिबास-ए-मजाज़  = In material robe; 
ज़बीं-ए-नियाज़= foreheads in supplication]
 
तरब आशना-ए-खुरूश हो , तू नवा है मरहम-ए-गोश हो 
वो सुरूद क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
[ तरब  = pleasure; आशना-ए-खुरूश = friendship with tumult; नवा = sound/tune; 
सुरूद = melody; सुकूत = silence; पर्दा-ए-साज़ = behind the tune ]
 
तू बचा बचा के न रख इसे , तेरा आइना है वो आइना 
की शिकस्ता  हो तो अज़ीज़तर  है निगाह-ए-आइना साज़ में
[शिकस्ता = broken; अज़ीज़तर= better; 
निगाह-ए-आइना साज़ = in the eyes of maker of the mirror  ]
 
दम-ए-तौफ़ करमक-ए-शमा ने ये कहा के वो असर-ए-कुहन 
न तेरी हिकायत-ए-सोज़ में, न मेरी हदीस-ए-गुदाज़ में
[ दम-ए-तौफ़ = during circumbulation; करमक-ए-शमा = the moth to the fire; 
असर-ए-कुहन = the old effect; हिकायत-ए-सोज़  = stories of sorrows; हदीस-ए-गुदाज़ = heart melting tales ]
 
न कहीं जहाँ में अमां मिली, जो अमां मिली तो कहाँ मिली 
मेरी जुर्म-ए-खानाखाराब को , तेरे अफ़व-ए-बन्दानवाज़  में
[ अमां  = protection/security; जुर्म-ए-खानाखाराब = crime of destruction; 
अफ़व-ए-बन्दानवाज़ = in the grace of almighty]
 
न वो इश्क में रहीं गर्मियां, न वो हुस्न में रहीं शोखियाँ 
न वो गजनवी में तड़प रही, न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में 
 
जो मैं सर-बसज्दा हुआ कभी तो, ज़मीं से आने लगी सदा 
तेरा दिल तो है सनम आशना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
[सर-बसज्दा =head  in prostration; सदा = call/sound; सनम आशना = friends of idols ]

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