सोमवार, 8 मार्च 2021

तुझ को मालूम नहीं तुझ को भला क्या मालूम.../ हिमायत अली शायर (१९२६-२०१९)

 https://youtu.be/93vT62UgdOk 

मीर हिमायत अली 'शायर', पाकिस्तान के एक मशहूर कवि,लेखक, गीतकार और 
रेडियो कलाकार रहे हैं। उनकी पैदाईश 14 जुलाई 1926 को औरंगाबाद (हिन्दुस्तान) में हुई।  
हिमायत साहब 1951 में रेडियो कराची पाकिस्तान में एक बेहतरीन पारी की शुरुआत करने 
से पूर्व आल इंडिया रेडियो में काम कर चुके थे।  उनकी शायरी की पहली किताब 'आग में फूल' 
रही जोकि 1956 में प्रकाशित हुई।  ‘मिट्टी का क़र्ज़' 'तिश्नगी का सफ़र' 'हूरों की आवाज़' 
उनकी अन्य पुस्तकें हैं। उनकी ग़ज़लों, गीतों को ‘कुल्ल्यात-ए-शाएर’ के नाम से संकलित 
किया गया है।  बतौर गीतकार उनकी जो फिल्में प्रतिष्ठित ‘निगार अवार्ड’ की हक़दार
बनी,वो आँचल और दामन थीं। उनका निधन 16 जुलाई 2019 को टोरंटोओंटारियो,
कनाडा में हुआ। 

तुझ को मालूम नहीं तुझ को भला क्या मालूम

तेरे चेहरे के ये सादा से अछूते से नुक़ूश

मेरी तख़्ईल को क्या रंग अता करते हैं

तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे आरिज़ तिरे होंट

कैसी अन-जानी सी मासूम ख़ता करते हैं

तेरे क़ामत का लचकता हुआ मग़रूर तनाव

जैसे फूलों से लदी शाख़ हवा में लहराए

वो छलकते हुए साग़र सी जवानी वो बदन

जैसे शो'ला सा निगाहों में लपक कर रह जाए

ख़ल्वत-ए-बज़्म हो या जल्वत-ए-तन्हाई हो

तेरा पैकर मिरी नज़रों में उभर आता है

कोई साअ'त हो कोई फ़िक्र हो कोई माहौल

कोई साअ'त हो कोई फ़िक्र हो कोई माहौल

मुझ को हर सम्त तिरा हुस्न नज़र आता है

चलते चलते जो क़दम आप ठिठक जाते हैं

सोचता हूँ कि कहीं तू ने पुकारा तो नहीं

गुम सी हो जाती हैं नज़रें तो ख़याल आता है

इस में पिन्हाँ तिरी आँखों का इशारा तो नहीं

धूप में साया भी होता है गुरेज़ाँ जिस दम

तेरी ज़ुल्फ़ें मिरे शानों पे बिखर जाती हैं

झुक के जब सर किसी पत्थर पे टिका देता हूँ

तेरी बाहें मिरी गर्दन में उतर आती हैं

आँख लगती है तो दिल को ये गुमाँ होता है

सर-ए-बालीं कोई बैठा है बड़े प्यार के साथ

मेरे बिखरे हुए उलझे हुए बालों में कोई

उँगलियाँ फेरता जाता है बड़े प्यार के साथ

जाने क्यूँ तुझ से दिल-ए-ज़ार को इतनी है लगन

कैसी कैसी तमन्नाओं की तम्हीद है तू

दिन में तू इक शब-ए-महताब है मेरी ख़ातिर

सर्द रातों में मिरे वास्ते ख़ुर्शीद है तू

अपनी दीवानगी-ए-शौक़ पे हँसता भी हूँ मैं

और फिर अपने ख़यालात में खो जाता हूँ

तुझ को अपनाने की हिम्मत है खो देने का ज़र्फ़

कभी हँसते कभी रोते हुए सो जाता हूँ मैं

किस को मालूम मिरे ख़्वाबों की ताबीर है क्या

कौन जाने कि मिरे ग़म की हक़ीक़त क्या है

मैं समझ भी लूँ अगर इस को मोहब्बत का जुनूँ

तुझ को इस इश्क़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ से निस्बत क्या है

तुझ को मालूम नहीं तुझ को होगा मालूम

तेरे चेहरे के ये सादा से अछूते से नुक़ूश

मेरी तख़्ईल को क्या रंग अता करते हैं

तेरी ज़ुल्फ़ें तेरी आँखें तिरे आरिज़ तिरे होंट

कैसी अन-जानी सी मासूम ख़ता करते हैं


नुक़ूश -नक्श’ का बहुवचन, चित्र, रेखाएँ

तख़्ईल - कल्पना

आरिज़ - गाल, कपोल

क़ामत - कद-काठी

मग़रूर - गर्वीला

ख़ल्वत-ए-बज़्म - महफ़िल का अकेलापन

जल्वत-ए-तन्हाई - अकेलेपन का सौंदर्य

पैकर - स्वरुप

साअ'त - अवसर

फ़िक्र - विचार

हरसम्त - हर ओर

पिन्हाँ - छुपा हुआ, छुपी हुई, निहित

गुरेज़ाँ - असहनीय

शानों - कन्धों

गुमाँ - घमंड , भ्रम

सर-ए-बालीं - छज्जे पर, सिरहाने

दिल-ए-ज़ार - संतप्त ह्रदय

तमन्नाओं - कामनाओं

तम्हीद - भूमिका

शब-ए-महताब - चांदनी रात

ख़ुर्शीद - सूरज

दीवानगी-ए-शौक़ - प्यार की उत्कंठा

ज़र्फ़ - सामर्थ्य

ताबीर - प्रतिफल

ग़म की हक़ीक़त - दुःख की वास्तविकता

जुनूँ - उन्माद

इश्क़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ - उन्मादी प्यार

निस्बत - सम्बन्ध


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