बुधवार, 17 मार्च 2021

आरज़ू दारम कि मेहमानत कुनम...(फ़ारसी)/ हज़रत शम्स तबरेज़ी (११८५-१२४८) / गायन : क़व्वाल निज़ामुद्दीन-सैफ़ुद्दीन एवं साथी / काव्य-भावानुवाद : अरुण मिश्र

 https://youtu.be/96VTl_Lx_XY 

आरज़ू दारम कि मेहमानत कुनम...(फ़ारसी)
कलाम : हज़रत शम्स तबरेज़ी
गायन : क़व्वाल निज़ामुद्दीन-सैफ़ुद्दीन एवं साथी
काव्य-भावानुवाद : अरुण मिश्र 


आरज़ू दारम कि मेहमानत कुनम
जान-ओ-दिल ऐ दोस्त क़ुर्बानत कुनम

आरज़ू है कि तुझे मेहमाँ करूँ
औ ' दिल -ओ -जां दोस्त पर क़ुर्बां करूँ

ग़र यकीं दानम कि बर मन आशिक़ी
अज़ जमाल-ए-ख़्वेश हैरानत कुनम

ग़र यक़ीं हो तुझ को मुझसे इश्क़ है
तो मैं अपने हुस्न से हैराँ करूँ

ग़र तू तर्क़-ए-सर कुनी मर्दानावार
हम चू इस्माईल क़ुर्बानत कुनम

ग़र तू मर्दों की तरह सर वार दे
तो मैं इस्माईल सा क़ुर्बां करूँ

'शम्स तबरेज़ी' ब-मौलाना ब-गो
दफ़्तर-ए-असरार-ए-दीवानत कुनम

'शम्स तबरेज़ी' कहें मौलाना से
दफ़्तर-ए-असरार मैं दीवां करूँ

Shams-i Tabrīzī or Shams al-Din Mohammad 
(1185–1248) was a Persian poet, who is credited as the spiritual 
known as Rumi and is referenced with great reverence in Rumi's 
poetic collection, in particular Diwan-i Shams-i Tabrīzī (The 
Works of Shams of Tabriz)Tradition holds that Shams taught 
Rumi in seclusion in Konya for a period of forty days, before 
fleeing for Damascus. The tomb of Shams-i Tabrīzī was recently 
nominated to be a UNESCO World Heritage Site.




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