बुधवार, 10 मार्च 2021

महाशिवरात्रि पर विशेष / रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्रम् का काव्य-भावानुवाद.../ अरुण मिश्र


https://youtu.be/MZ9njJYqOBw 
रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्रम् का भावानुवाद...
        रावणकृत  यह  शिवताण्डव स्तोत्र  न केवल  भक्ति  एवं  भाव के  दृष्टि से अनुपम है
अपितु, काव्य की दृष्टि से भी अद्भुत है। इसकी लयात्मकता, छन्द- प्रवाह,  ध्वनि-सौष्ठव,
अलंकार-छटा,  रस-सृष्टि  एवं  चित्रात्मक संप्रेषणीयता  सब कुछ अत्यन्त आकर्षक एवं
मनोहारी  है।  यह  अप्रतिम  रचना  महामना  रावण  के   विनयशीलता,   पाण्डित्य  एवं
काव्य-लाघव का उत्कृष्ट उदाहरण है।
       अनन्य  भक्ति  की  गंगा,  प्रवहमान  स्वर-ध्वनि  की  यमुना  एवं  उत्कृष्ट काव्य की
सरस्वती की इस त्रिवेणी में अवगाहन के पुण्यलाभ के कृतज्ञतास्वरूप इसके भावानुवाद
का अकिंचन प्रयास किया है। आप भी पुण्यलाभ लें।
      भगवान शिव मेरा एवं समस्त लोक का कल्याण करें।

-अरुण मिश्र.  

 ‘‘अथ शिवताण्डवस्तोत्रम्’’


जटा - वन - निःसृत,   गंगजल    के   प्रवाह   से-
पावन     गले,    विशाल     लम्बी     भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते   जो   तांडव,  वे   शिव  जी,  कल्याण  करें।।

जटा     के     कटाह    में,    वेगमयी    गंग    के,
चंचल   तरंग - लता   से   शोभित   है    मस्तक।
धग् - धग् - धग्  प्रज्ज्वलित पावक  ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर  में   प्रतिक्षण  रति  हो मेरी।।

गिरिजा के  विलास हेतु  धारित  शिरोभूषण  से,
भासित  दिशायें देख, प्रमुदित है   मन  जिनका।
जिनकी  सहज  कृपादृष्टि,  काटे  विपत्ति  कठिन,
ऐसे     दिगम्बर    में,    मन    मेरा    रमा    रहे।।

जटा   के   भुजंगो   के   फणों  के   मणियों   की-
पिंगल  प्रभा, दिग्वधुओं  के  मुख   कुंकुम  मले।
स्निग्ध,   मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय  धारण  से,
भूतनाथ   शरण,    मन   अद्भुत     विनोद   लहे।।

इन्द्र   आदि   देवों   के   शीश   के   प्रसूनों   की- 
धूलि   से   विधूसर   है,  पाद-पीठिका   जिनकी।
शेष  नाग    की   माला   से     बाँधे  जटा - जूट,
चन्द्रमौलि,  चिरकालिक श्री  का  विस्तार  करें।।

ललाटाग्नि  ज्वाला  के   स्फुलिंग  से   जिसके-
दहे   कामदेव,   और   इन्द्र    नमन   करते   हैं।
चन्द्र की कलाओं से शोभित मस्तिष्क जटिल,
ऐसे  उन्नत  ललाट  शिव  को   मैं   भजता  हूँ ।।

भाल-पट्ट पर कराल,धग-धग-धग जले ज्वाल,
जिसकी    प्रचंडता    में    पंचशर    होम    हुये।
गौरी  के   कुचाग्रों  पर   पत्र - भंग - रचना   के-
एकमेव   शिल्पी,  हो  त्रिलोचन  में   रति  मेरी।।

रात्रि   अमावस्या   की,  घिरे   हों   नवीन  मेघ,
ऐसा   तम,  जिनके   है   कंठ  में   विराजमान।
चन्द्र  और   गंग  की   कलाओं को   शीश  धरे-
जगत्पिता  शिव,  मेरे   श्री  का   विस्तार  करें।।

खिले नील कमलों की,  श्याम वर्ण  हरिणों की,
श्यामलता से  चिह्नित, जिनकी  ग्रीवा  ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन  करते  हुये  शिव  को,  मैं   भजता हूँ।।

मंगलमयी   गौरी    के    कलामंजरी  का   जो-
चखते    रस - माधुर्य,   लोलुप    मधुप     बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो  विनाशक, उन  शिव को  मैं   भजता  हूँ।।

भ्रमित    भुजंगों    के    तीव्र    निःश्वासों    से-
और भी  धधकती  है, भाल  की  कराल अग्नि।
धिमि-धिमि-धिमि मंगल मृदंगों की तुंग ध्वनि-
पर,  प्रचंड  ताण्डवरत्,  शिव जी की  जय होवे।।

पत्तों   की   शैय्या   और    सुन्दर  बिछौनों  में;
सर्प - मणिमाल,   और    पत्थर   में,  रत्नों  में।
तृण  हो  या  कमलनयन  तरुणी; राजा - प्रजा;
सब  में  सम  भाव, सदा  ऐसे  शिव  को  भजूँ।।

गंगा   तट  के   निकुंज - कोटर  में  रहते  हुये,
दुर्मति  से  मुक्त  और   शिर  पर अंजलि  बॉधे।
विह्वल  नेत्रों  में  भर  छवि  ललाम - भाल की,
जपता    शिवमंत्र,   कब    होऊँगा   सुखी   मैं।।

उत्तमोत्तम   इस   स्तुति  को   जो  नर  नित्य,
पढ़ता,   कहता   अथवा    करता   है   स्मरण।
पाता  शिव - भक्ति;  नहीं पाता  गति अन्यथा;
प्राणी   हो  मोहमुक्त,  शंकर   के   चिन्तन  से।।

शिव का कर  पूजन, जो पूजा की  समाप्ति पर,
पढ़ता   प्रदोष    में,   गीत   ये   दशानन   का।
रथ,    गज,    अश्व   से   युक्त,  उसे  अनुकूल,
स्थिर     श्री - सम्पदा,   शंभु    सदा   देते  हैं।।

 “इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
                                *

मूल संस्कृत पाठ  :
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले 
      गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् । 
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं 
      चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥ १॥ 

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
     -विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।    
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके  
      किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ २॥ 

धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर 
      स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे । 
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि 
      क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३॥ 

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा   
      कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे 
      मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ ४

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर 
      प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः । 
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
      श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥ ५॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा- 
     -निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् । 
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
      महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः  ॥ ६॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल- 
      द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक- 
     -प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥। ७॥

नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्- 
      कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः 
      कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥ ८॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा- 
     -वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं 
      गजच्छिदांधकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ ९॥

अखर्व(अगर्व)सर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
      रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
      गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ १०॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
     -द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
     ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ ११॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
     -गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
     समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥ १२॥

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
     विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
     शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ १३॥

इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
     पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
     विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥ १४॥

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
     यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
     लक्ष्मीं सदैव  सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥ १५॥

इति श्रीरावण-कृतम्शिव-ताण्डव-स्तोत्रम्सम्पूर्णम्
(पूर्वप्रकाशित)

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