शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे.../ शकील बदायूँनी / तलत महमूद

https://youtu.be/Cb5UdZ-pczM

ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत तिरे नाम तक न पहुँचे

मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी तिरा हाथ ज़िंदगी भर कभी जाम तक न पहुँचे वो नवा-ए-मुज़्महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन वो सदा-ए-अहल-ए-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे मिरे ताइर-ए-नफ़स को नहीं बाग़बाँ से रंजिश मिले घर में आब-ओ-दाना तो ये दाम तक न पहुँचे नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही हैं मैं जो उन से रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे वही इक ख़मोश नग़्मा है 'शकील' जान-ए-हस्ती जो ज़बान पर न आए जो कलाम तक न पहुँचे

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें