मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

प्यार की एक नदी बहती है...

 ग़ज़ल

- अरुण मिश्र     


    यूँ  जु़बां से  तो न ज़हर घोलो।
    जान ग़र चाहिये, तो यूँ बोलो।।


            प्यार की  एक नदी  बहती है।
            दाग़, अपने गुनाह के धो लो।।

   
    हो  न  जायें   मेरे  अरमां  पत्थर।
    ऐ बुतों! अब तो कुछ हिलो-डोलो।।


            इस क़फ़स की हैं तीलियाँ फ़ानी।
            शौके़-परवाज़, अपने  पर तोलो।।


    ख़ुद - बख़ुद    आयेगी    हवा   ताज़ा।
    तुम ’अरुन’ सिर्फ़, खिड़कियाँ खोलो।।
                               *

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