ग़ज़ल
- अरुण मिश्र
यूँ जु़बां से तो न ज़हर घोलो।
जान ग़र चाहिये, तो यूँ बोलो।।
प्यार की एक नदी बहती है।
दाग़, अपने गुनाह के धो लो।।
हो न जायें मेरे अरमां पत्थर।
ऐ बुतों! अब तो कुछ हिलो-डोलो।।
इस क़फ़स की हैं तीलियाँ फ़ानी।
शौके़-परवाज़, अपने पर तोलो।।
ख़ुद - बख़ुद आयेगी हवा ताज़ा।
तुम ’अरुन’ सिर्फ़, खिड़कियाँ खोलो।।
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