ग़ज़ल
-अरुण मिश्र
हम जिन्हें, जानते हैं, झूठे हैं।
आज वो हमसे, रूठे-रूठे हैं।।
सिलवटें माथे पे, भवों में बल।
कितने दिलक़श ये बेल-बूटे हैं।।
उतने जोड़े न, बहाने उसने।
जितने अरमां, हमारे टूटे हैं।।
इक तबस्सुम,लबों पे थिरकी है।
दिल में, सौ-सौ अनार छूटे हैं।।
हमने जिनको हैं कुर्सियाँ बख्शीं।
रहनुमा कितने वो अनूठे हैं।।
फैसलों पे, हमारी क़िस्मत के।
दस्तख़त की जगह, अँगूठे हैं।।
कैसी जम्हूरियत, क्या आज़ादी?
ख़्वाब गाँधी के हुये, झूठे हैं।।
पिछले चालीस बरस में सारे।
इन्क़लाबी तिलिस्म टूटे हैं।।
अश्क़ अपने नहीं,पिये हैं‘अरुन’।
घूँट हमने, लहू के घूँटे हैं।।
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बहुत ही सुन्दर ...।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रिय 'सदा' जी|नव-वर्ष २०११ आप के एवं आप के परिवार के लिए बहुत-बहुत शुभ हो |
जवाब देंहटाएं- अरुण मिश्र.