-अरुण मिश्र
न जाने किन ज़मीनों से, मैं बीजों को उठाता हूँ।
जिन्हें फ़िर बो के बंजर में, नई फ़सलें उगाता हूँ ॥
कभी पलकों के पानी से, कभी ख़ूँ से कलेजे के।
मैं अक़्सर सींचता, ग़ज़लों के जो बिरवे लगाता हूँ॥
नरम, नाज़ुक ग़ुलाबों से, हमारे शेर’ खिलते हैं।
ग़ज़ल कहता, सुख़न के या कि, ग़ुलदस्ते सजाता हूँ॥
कटे यूँ वक़्ते-तनहाई कि, नक़्श उसका तसव्वुर में।
बनाता हूँ, मिटाता हूँ; मिटाता हूँ, बनाता हूँ॥
अग़रचे देर हो जाये, तो दीवाना कहाँ जाये।
मुक़र्रर है शिकायत, देर से क्यूँ घर को आता हूँ॥
भले हो तन ज़मीं पे, मन सदा उलझा सितारों में।
कुलाबें यूँ, ज़मीनो-आस्मां की मैं मिलाता हूँ॥
मैं भूखा प्यार का हूँ, और हूँ प्यासा तसल्ली का।
लिपट जाता हूँ बरबस, ग़र कोई ग़मख़्वार पाता हूँ॥
बला की भी बलायें लेता हूँ, आती तो है मुझ पे।
गले पड़ने को कहती है, तो पलकों पे बिठाता हूँ॥
मैं उस मग़रूर बुत के दर पे, क्यूँ सिज़दारवां होऊँ।
'अरुन' इज्ज़त से जीता हूँ, मजूरी कर के खाता हूँ॥
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लाजवाब ग़ज़ल!सभी शेर एक से एक हैं.
जवाब देंहटाएंअगुनगुनाती धूप
धन्यवाद,अल्पना जी|
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.