अवलम्ब...
- अरुण मिश्र.
शुष्क मन-मरुथल, तरल करती हुई |
अमृत बरसाती, गरल हरती हुई |
कौन तुम? नैराश्य, तंद्रा, क्लैव्य हर,
कठिन जीवन-पथ, सरल करती हुई ||
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("अवलम्ब" शीर्षक की यह पूरी कविता, 'रश्मि-रेख' में ०८,अक्टूबर,२०१० को पूर्व प्रकाशित है|)
अच्छी कविता है पूरा पढ़ना चाहेगें।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, प्रिय मुकेश जी|पूरी कविता इसी ब्लॉग पर ०८,अक्टूबर,२०१० की पोस्ट में उपलब्ध है|
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.
विडियो देखी .
जवाब देंहटाएंक्या बात है!वाह!
[रिकॉर्डिंग के समय शायद आसपास कोई फोन पर बात कर रहा है]
धन्यवाद प्रिय अल्पना जी|
जवाब देंहटाएं(घर पर हुई अनौपचारिक गोष्ठी की बच्चों द्वारा ली गयी क्लिपिंग है|)
-अरुण मिश्र.