मंगलवार, 28 जून 2011

सहयात्रा के चालीसवें वसंत पर विशेष.....


जीवन-यात्रा में साथ-साथ मात्र चालीस वर्ष.....






तुम मिलीं तो...

-अरुण मिश्र

तुम मिलीं तो मुझे हर ख़ुशी  मिल गई।
ख़ुशबुयें,  ताज़ग़ी,  ज़िन्दगी  मिल गई।
जब भी  मन को  अँधेरों ने   घेरा कभी,
तुम हँसी, औ’  मुझे  रोशनी  मिल गई ।।


तुम मिलीं तो  ज़मीं से फ़लक की तरह।
आँख की  पुतलियों से  पलक की तरह।
मन-गगन पे  घिरे  नेह-घन  में   चपल,
कौंधती बिजलियों की  झलक की तरह।।

बन के  जूही-कली,  मन के  डाली  लसीं।
रूह  में  तुम  मिरे,  बन  के  ख़ुशबू  बसीं।
मुझको जिस जाल में तुमने उलझा लिया,
सोन-मछरी,  उसी  जाल  में  तुम  फँसीं।।

तुम   सुनहरी  सुबह,   चाँदनी  रात  हो।
मेरे   एहसास   हो,   मेरे    जज़्बात  हो।
ख़ूबसूरत    तसव्वुर,  हँसीं  ख़्वाब   तुम,
ज़िन्दगी  को   बहारों  की   सौग़ात  हो।।

तुम   मिलीं   तो   अनोखे   नज़ारे  हुये।
चाँद - सूरज - सितारे ,    हमारे     हुये।
तुम  सिमट कर  मेरी  बस मेरी  हो गई,
हम   बिखर  कर  तुम्हारे - तुम्हारे हुये।।
                         *                                      

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