धरती पर आग लगी, पंछी मजबूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
श्री विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ' जी को कवि सम्मेलनों के मंचों से यह कविता पढ़ते हुए गोरखपुर में, कई बार बचपन में सुना/देखा था। फिर उनसे मिलने का सौभाग्य अथवा कहिये दुर्भाग्य तब मिला जब वह पूरी तरह विक्षिप्त हो चुके थे। १९८२ -८३ में गोरखपुर में पोस्टिंग के दौरान बेतियाहाता में कार्यालय के पास एक दिन मेरे मित्र श्री उपेंद्र मिश्र जी ने एक पागल से घूम रहे व्यक्ति के पास ठिठकते हुए कहा, अरुण, जानते हो इन्हें ? ये विज्ञ जी हैं। उन्हें सादर कार्यालय ला कर चाय पिलाई और आग्रह कर के अस्फुट स्वरों में एक कविता भी सुनी। फिर तो कई बार वे कार्यालय तक आ जाते और अनुरोध करने पर चाय-पान के पश्चात कुछ न कुछ सुनाते भी। बहुत स्पष्ट तो नहीं होता पर भाव समझ में आ जाता। बीच-बीच में अंग्रेजी में ट्रांसलेट भी करने लगते। ये क्षण विद्वता और प्रतिभा से करुण साक्षात्कार के क्षण होते थे।
उनकी एक कविता "एक गरम कोट ईमानदार किरानी के लिए", एक गरम कोट की लालसा में हताशा भोगते हुए एक क्लर्क की पीड़ा की अत्यंत शशक्त एवं मार्मिक अभिव्यक्ति थी। इसे कई बार उनसे सुना।
फिर मैं गोरखपुर से स्थान्तरित हो गया। बाद में संभवतः १९८६ में उनकी इसी अवस्था में मृत्यु हो गयी।
पिछले महीने अचानक मित्र उपेंद्र ने उनकी तीन कवितायेँ व्हाट्स ऍप पर भेजीं तो स्मृतियाँ ताज़ा हो उठीं।
स्वर्गीय विज्ञ जी की पुण्य स्मृति को नमन करते हुए उनकी एक प्रतिनिधि कविता से आप का परिचय करवा रहा हूँ।
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
श्री विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ' जी को कवि सम्मेलनों के मंचों से यह कविता पढ़ते हुए गोरखपुर में, कई बार बचपन में सुना/देखा था। फिर उनसे मिलने का सौभाग्य अथवा कहिये दुर्भाग्य तब मिला जब वह पूरी तरह विक्षिप्त हो चुके थे। १९८२ -८३ में गोरखपुर में पोस्टिंग के दौरान बेतियाहाता में कार्यालय के पास एक दिन मेरे मित्र श्री उपेंद्र मिश्र जी ने एक पागल से घूम रहे व्यक्ति के पास ठिठकते हुए कहा, अरुण, जानते हो इन्हें ? ये विज्ञ जी हैं। उन्हें सादर कार्यालय ला कर चाय पिलाई और आग्रह कर के अस्फुट स्वरों में एक कविता भी सुनी। फिर तो कई बार वे कार्यालय तक आ जाते और अनुरोध करने पर चाय-पान के पश्चात कुछ न कुछ सुनाते भी। बहुत स्पष्ट तो नहीं होता पर भाव समझ में आ जाता। बीच-बीच में अंग्रेजी में ट्रांसलेट भी करने लगते। ये क्षण विद्वता और प्रतिभा से करुण साक्षात्कार के क्षण होते थे।
उनकी एक कविता "एक गरम कोट ईमानदार किरानी के लिए", एक गरम कोट की लालसा में हताशा भोगते हुए एक क्लर्क की पीड़ा की अत्यंत शशक्त एवं मार्मिक अभिव्यक्ति थी। इसे कई बार उनसे सुना।
फिर मैं गोरखपुर से स्थान्तरित हो गया। बाद में संभवतः १९८६ में उनकी इसी अवस्था में मृत्यु हो गयी।
पिछले महीने अचानक मित्र उपेंद्र ने उनकी तीन कवितायेँ व्हाट्स ऍप पर भेजीं तो स्मृतियाँ ताज़ा हो उठीं।
स्वर्गीय विज्ञ जी की पुण्य स्मृति को नमन करते हुए उनकी एक प्रतिनिधि कविता से आप का परिचय करवा रहा हूँ।
"धरती पर आग लगी, पंछी मजबूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
लपटों में नीड़ जला
आग ने धुआँ उगला
पंछी दृग बंद किये
आकुल मन उड़ निकला
आग ने धुआँ उगला
पंछी दृग बंद किये
आकुल मन उड़ निकला
सिंधु किरन में डूबी – और साँझ हो गई
आँसू बन बरस रहा पंख का गरूरा है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
आँसू बन बरस रहा पंख का गरूरा है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
बोझिल तम से अंबर
शंकित उर का गह्वर
जाने किस देश में
गिरेगा गति का लंगर
शंकित उर का गह्वर
जाने किस देश में
गिरेगा गति का लंगर
काँप रहे प्राण आज पीपल के पात से
कंठ करुण कम्पन के स्वर में भरपूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
कंठ करुण कम्पन के स्वर में भरपूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!
उड़ उड़ जुगनू हारे
कब बन पाए तारे
अपने मन का पंछी
किस बल पर उड़ता रे,
कब बन पाए तारे
अपने मन का पंछी
किस बल पर उड़ता रे,
प्रश्न एक पवन के प्रमाद में मुखर हुआ
पंछी को धरती पर जलना मंजूर है।
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!"
पंछी को धरती पर जलना मंजूर है।
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!"
*
पुनश्च : विज्ञ जी के सम्बन्ध में एक आलेख इंटरनेट पर प्राप्त हुआ है, जिसमें निराला जी द्वारा उनकी प्रशंशा किये जाने का ज़िक्र है। इसका लिंक शेयर कर रहा हूँ। https://www.bhadas4media.com/samachar/vidyadhar-vigya/
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