रस-रंग-सिक्त-सुन्दर वसंत
-अरुण मिश्र
आया वसंत।
आया वसंत।
मेरे मन में -
लहरें अनन्त।।
रंगों का ज्वार उठे जिनमें,
हर पुष्प-पुष्प लगता सागर।
उपवन की कली-कली आतुर -
छलकाती निज मधु-रस-गागर।।
है पवन -
पराग-धूलि-बोझिल,
सुरभित हैं -
सारे दिग्-दिगंत।
रस-रंग-सिक्त-
सुन्दर वसंत।
मेरे मन में -
लहरें अनन्त।।
मंथर-मंथर मादक-बयार।
कण-कण में यौवन का उभार।
पल्लवित लतायें, पुष्पित तरु,
नत आम्र-विटप, मंजरी-भार।।
है प्रकृति लुटाती -
मुक्त-हस्त,
अपनी -
सुषमा-निधियॉ अनन्त।
मंजुल, मोहक,
मनहर, वसंत।
मेरे मन में -
लहरें अनन्त।।
बगिया-बगिया कोयल बोले।
पुरवइया, अवगुंठन खोले।
चुनरियॉ-वसंती, बल खाती-
फिरतीं, अॅगना-अॅगना डोलें।।
करता है तन-मन -
रोमांचित,
घुलता है -
जीवन में वसंत।
मृदु , मधुर, मदिर
मादक, वसंत।
मेरे मन में -
लहरें अनन्त।।
हैं, वन-उपवन महके-महके।
विहगों के स्वर, चहके-चहके।
बहके-बहके आबालवृद्ध -
गा रहे फाग, लहके-लहके।।
मधु-रस-प्लावित -
सब जड़-चेतन;
झर-झर झरता -
निर्झर, वसंत।
जीवन के -
श्वेत-श्याम छवि में -
दे, इंद्रधनुष-रंग -
भर वसंत।।
आया वसंत।
छाया वसंत।
मेरे मन में -
लहरें अनन्त।।
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(पूर्वप्रकाशित)
(पूर्वप्रकाशित)
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