मंगलवार, 30 नवंबर 2021

श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन.../ संत तुलसीदास / सिवस्री स्कन्द्प्रसाद

 https://youtu.be/g7kFcat7ZCQ

गोपिका जीवन स्मरणं 
गोविन्द गोविन्द 
जानकी कान्त स्मरणं 
जय जय राम राम 
सद्गुरु न्यानानन्दमूर्ति की 
जय.....

"श्री राघवं दशरथात्मजं अप्रमेयं I 
सीतापतिं रघुकुलांवय रत्नदीपं II 
आजानबाहुम् अरविंददळायताक्षं I 
रामं निशाचर विनाशकरं नमामी II" 

I bow down to lord Rama, the son of King Dasharath, 
who is the ultimate one, the glorious scion of Raghu ; 
he who is the spouse of Sita, the bejewelled lamp of 
Raghu's race (Suryavanshi clan), he who has long 
hands and lotus-like eyes; he who is the destroyer of 
the demons and evil forces and the one who restored 
the good! .

श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं ।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥

कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं ।
पटपीत मानहुँ तड़ित रुचि शुचि नौमि जनकसुता वरं ॥२॥

भज दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं ॥३॥

शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अङ्ग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं ।
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं ॥५॥

भावार्थ 
हे मन कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर। वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण 
भय को दूर करने वाले हैं।उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं। मुख-हाथ 
और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥
उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है। उनके शरीर का नवीन 
नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है। पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली 
के समान चमक रहा है। ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार 
करता हूँ ॥२॥
हे मन दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल 
नाश करने वाले,आनन्दकन्द कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान 
दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर ॥३॥
जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर तिलक, और प्रत्येक 
अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं। जो 
धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥
जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि 
शत्रुओं का नाश करने वाले हैं,तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे 
हृदय कमल में सदा निवास करें ॥५॥

सोमवार, 29 नवंबर 2021

रम्यान्तरः कमलिनीहरितैः सरोभि- .../ अभिज्ञान शाकुन्तलम् / महाकवि कालिदास

शकुन्तला-आज अपने पति के गृह को जा रही है, आप लोग सब मिलकर इसे 
अनुमति (आज्ञा, स्वीकृति) दीजिए। 

 [आकाशवाणी होती है] 

रम्यान्तरः कमलिनीहरितैः सरोभि-
श्छायाद्रुमैर्नियमितार्कमयूखतापः।
भूयात्कुशेशयरजोमृदुरेणुरस्याः
शान्तानुकूलपवनश्च शिवश्च पन्थाः।।
       -अभिज्ञान शाकुन्तलम् ४.११

''बीच बीच में कमल की लताओं से हरे-भरे सरोवरों से युक्त, मनको हरनेवाला, घनी छाया से युक्त वृक्षों से सूर्य की किरणों के सन्ताप से रहित, कमलों की रज (धूलि ) से मृदुल और शान्त तथा अनुकूल, मन्द-मन्द पवन से युक्त इसका मार्ग कल्याणकारी हो।"

"May her path, pleasant at intervals with lakes that are green with lotus beds, where the heat of the sun's rays is mitigated by shady trees, where the dust is soft as the pollen from lotuses, be cheered by gentle and pleasant breezes and be (altogether) prosperous."

पियाजी री वाणी मत बोल.../ मीरा दासी / छोटू सिंह रावणा

https://youtu.be/pDiIg55tat8

दोहा ॥
प्रीतम प्रीत लगाय के , तुम दूर देश मत जाय ।
बसो हमारी नगरी में , हम मांगे तुम खाय ॥


जो कोई पियाजी री प्यारी सुणे रे ,
देवे थारी चोंच मरोड़ ।
पपइया , पियाजी री वाणी मत बोल ॥

चोंच कटाऊं , पपइया थारी रे ,
ऊपर घालू लूण ।
पिवजी म्हारा मैं पिया री ,
थू कुण केवण वालो पपइया ,
पियाजी री वाणी मत बोल ॥

थारा वचन सुहावणा रे ,
पिव – पिव करे है पुकार ।
चोंच मढाऊं थारी सोवणी रे ,
थू म्हारे सिर रो मोड़ पपइया ,
पियाजी री वाणी मत बोल ॥

म्हारा पियाजी ने पतियां भेजूं रे ,
सुध – बुध लेवण आय ।
जाय पियाजी ने यूं कहिजे रे ,
ब्रेहणी धान न खाय पपइया ,
पियाजी री वाणी मत बोल ॥

मीरांदासी व्याकुल भई रे ,
पिव – पिव करे है पुकार ।
बेगा मिलो रे म्हारा अन्तर्यामी ,
तुम बिन रयो नहीं जाय पपइया ,
पियाजी री वाणी मत बोल ।।

रविवार, 28 नवंबर 2021

तू शब्दों का दास रे जोगी.../ ग़ज़ल : डॉ राहत इंदौरी / गायन : छोटू सिंह रावणा

https://youtu.be/pG5nAGmQZmE

तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विश्वास रे जोगी

इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी

ये सांसों का बन्दी जीवन
किसको आया रास रे जोगी

विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी

पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी

इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख है बारह मास रे जोगी

बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी।।

शनिवार, 27 नवंबर 2021

जय राधा माधव, जय कुन्ज बिहारी.../ भजन / मुख्य स्वर : कु. सिवस्री स्कन्दप्रसाद

 https://youtu.be/s71JNx7phKA

 

Vocal : Kum. Sivasri Skandaprasad Harmonium : Sri S. Manikandan Mridangam : Sri Karthik Viswanathan Dolki : Sri Gopalakrishnan

जय राधा माधव,
जय कुन्ज बिहारी
जय राधा माधव,
जय कुन्ज बिहारी
जय गोपी जन बल्लभ,
जय गिरधर हरी
जय गोपी जन बल्लभ,
जय गिरधर हरी
॥ जय राधा माधव...॥

यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन
यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन
जमुना तीर वन चारी,
जय कुन्ज बिहारी
॥ जय राधा माधव...॥

मुरली मनोहर करुणा सागर
मुरली मनोहर करुणा सागर
जय गोवर्धन धारी,
जय कुन्ज बिहारी
॥ जय राधा माधव...॥

हरे कृष्णा हरे कृष्णा,
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे कृष्णा हरे कृष्णा,
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे रामा हरे रमा,
रामा रामा हरे हरे
हरे रामा हरे रमा,
रामा रामा हरे हरे

हरे कृष्णा हरे कृष्णा,
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे कृष्णा हरे कृष्णा,
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे रामा हरे रमा,
रामा रामा हरे हरे
हरे रामा हरे रमा,
रामा रामा हरे हरे


Meaning in English: 

Hail the Lord, beloved Madhava of Radha
Who wandered in the groves of Vrinadavana
Sweetheart of Cowherds
He who lifted Govardhana hill (for the sake of his people)
Hail Son of Mother Yashodha
The delighter of the People of Vraja
Wanderer of the banks of river Yamuna and 
the Forests (forests on the banks of river Yamuna)

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

हनुमान बाहुक / श्रीमद्-गोस्वामि-तुलसीदास-कृत / स्वर : दिनेश कुमार दुबे

https://youtu.be/wrhh3wKlAGw 
हनुमान बाहुक श्री गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित एक अध्यात्मिक 
भगवान श्री हनुमान को समर्पित स्रोत है। जनश्रुति के अनुसार एक 
बार की बात है जब कलियुग के प्रकोप से तुलसीदास जी की भुजा 
में अत्यंत पीड़ा हुई तो उसके निवारण के लिये तुलसीदास जी ने 
इस स्रोत की रचना की थी।
सन 1664 विक्रमाब्द के लगभग श्री गोस्वामी तुलसीदासजी की 
भुजाओं में वात-व्याधि की गहरी पीड़ा उत्पन्न हुई थी और 
फोड़े-फुंसियों के कारण सारा शरीर वेदना का स्थान-सा बन गया था।
औषध, यन्त्र, मन्त्र, त्रोटक आदि अनेक उपाय किये गये, किन्तु घटने 
के बदले रोग दिनोंदिन बढ़ता ही जाता था। असहनीय कष्टों से हताश 
होकर अन्त में उसकी निवृत्ति के लिये गोस्वामी तुलसीदास जी ने 
हनुमानजी की वन्दना आरम्भ की। अंजनीकुमार श्री हनुमान जी की 
कृपा से उनकी सारी व्यथा नष्ट हो गयी थी | ये वही 44 पद्यों का 
‘हनुमानबाहुक’ नामक प्रसिद्ध स्तोत्र है।
असंख्य हरिभक्त श्रीहनुमान जी के उपासक निरन्तर इसका पाठ 
करते हैं और अपने वांछित मनोरथ को प्राप्त करके प्रसन्न होते हैं।
संकट के कठिन समय मे इस सद्यः फलदायक स्तोत्र का पूर्ण श्रद्धा-विश्वास 
पूर्वक पाठ करना श्री रामभक्तों के लिये परमानन्ददायक सिद्ध हुआ है।
छप्पय
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥
झूलना
पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो ।
बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो ।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन, अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।
बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥
भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥
गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥
कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥
दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू, अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥
दवन दुवन दल भुवन बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु, सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास। नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥
महाबल सीम महा भीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥
सम्पूर्ण पाठ (४४ छंद) भावार्थ सहित के लिए लिंक :
https://shrihanumanchalisa.in/hanuman-bahuk-path-hindi-lyrics-pdf/
सम्पूर्ण गायन :
https://youtu.be/xFyhOqbTGoU

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

जय जय देव हरे.../ मंगलगीतं / गीत गोविन्द / महाकवि जय देव / स्वर : विधि दवे

https://youtu.be/X2rF4cKS14I 

(१) श्रित-कमला-कुच-मण्डल धृत-कुण्डल ए कलित-ललित-वन-माल जय जय देव हरे (२) दिन-मणि-मण्डल-मण्डन भव-खण्डन ए मुनि-जन-मानस-हंस जय जय देव हरे (३) कालिय-विष-धर-गञ्जन जन-रञ्जन ए यदुकुल-नलिन-दिनेश जय जय देव हरे (४) मधु-मुर-नरक-विनाशन गरुडासन ए सुर-कुल-केलि-निदान जय जय देव हरे (५) अमल-कमल-दल-लोचन भव-मोचन ए त्रिभुवन-भुवन-निधान जय जय देव हरे (६) जनक-सुता-कृत-भूषण जित-दूषण ए समर-शमित-दश-कण्ठ जय जय देव हरे (७) अभिनव-जल-धर-सुन्दर धृत-मन्दर ए श्री-मुख-चन्द्र-चकोर जय जय देव हरे (८) तव चरणं प्रणता वयम् इति भावय ए कुरु कुशलं प्रणतेषु जय जय देव हरे (९) श्री-जयदेव-कवेर् इदं कुरुते मुदम् ए मङ्गलम् उज्ज्वल-गीतं जय जय देव हरे

Translation (1) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who depends on the breasts of Lakshmi Devi, Who wears ear globes and very pretty forest garland. (2) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who gives light to the solar system, Who cuts of births and is the swan of the minds of sages. (3) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who put an end to the poison of Kaliya, Who entertains people and who is the sun to the lotus of Yadu clan. (4) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who killed Madhu, Mura and Narakasura, Who sits on Garuda and who supports the play among devas. (5) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who has pretty eyes like the petals of lotus, Who saves us from birth and who is the support for all the three worlds. (6) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who is the ornament for the daughter of Janaka, Who defeats those who abuse and who killed Ravana in war. (7) Victory to you, victory to you, Oh Hari, Who is as pretty as rain bearing cloud, Who lifted the mandhara mountain, And who drinks the prettiness of the face of Lakshmi, Like the Chakora bird drinks the rays of moon. (8) Victory to you, victory to you, Oh Hari, We salute both your feet, Please shower mercy on us, And please look after our welfare. (9) Victory to you, victory to you, Oh Hari, This prayer composed by the poet Jaya Deva, Gives joy to the devotees of the Lord, And is a sweet prayer, beseeching for good.


मंगलवार, 23 नवंबर 2021

हम परदेशी पंछी रे साधु भाई.../ निर्गुण भजन / सन्त कबीर / गायन : प्रह्लाद सिंह टिपन्या एवं साथी

 https://youtu.be/iINGBDDCpNg 

हम परदेशी पंछी रे साधु भाई... साखी-
हम वासी वा देश के ,और धरण गगन दोई नाई । शब्द मिलावा हो रहा, और देह मिलावा नाई ।। बिन पवन का पंत है, और बिन बस्ती का देश । बिना पिंड का पुरुष है , और कहै कबीर संदेश ।। सिरगुण की सेवा करो , और निर्गुण का करो ध्यान। अरे निर्गुण सिरगुण के परे , और तहाँ हमारा ध्यान।। भजन -
हम परदेशी पंछी रे साधु भाई , इणी देश का नाही , इणी देश रा लोग अचेता , पल - पल परलय में जाई।टेका । मुख बिन बोलना पग बिन चलना बिना पंखों से उड़ जाई । इना सूरत की लोय हमारी , अनहद माई ( ठहराई ) ओलखाई ॥ छाया में बैठूं तो अग्नि सी लागे , धूप बहुत शितलाई । छाया धूप से मोरे सतगुरू न्यारा , मै सतगुरू के माई ॥ आठों पहर अड़ा रहे आसन , कबहूँ न उतरेगा साँई । ज्ञानी रे ध्यानी पचपच मर गया , उणी देश केरा माई ॥ निर्गुण रूपी है मेरे दाता , सिरगुण नाम धराई । मन पवन दोनों नहीं पहुँचे , उणी देश केरा माई ॥ नख - शिख नैन शरीर हमारा , सतगुरू अमर कराई । कहै कबीर मिलो निर्गुण से , अजर अमर हो जाई


Courtesy Rangi Arwind's Blog Anand Sutra
http://yogiarwind.blogspot.com/2015/05/hum-pardesi-panchhi-baba.html

हम परदेसी पंछी बाबा (Hum Pardesi Panchhi Baba)

(One of the very insightful bhajans of Kabir interpreted by Rangi Arwind)

हम परदेसी पंछी बाबा, अणी देसरा नाही
Hum pardesi panchhi baba, ani desara nahi.
(I am from the foreign land my dear and not from here!)

Realized soul recognizes that the soul (the real force of the human existence) is from somewhere else - from the domain of supreme consciousness. It expands beyond the physical reality which is defined as the local land (individual consciousness). The key to existence is divine grace. The moment the grace evaporates, existence ceases. This grace is represented by soul which can not be identified by our senses but its there! So a realized yogi who identifies himself with the soul and not with the body, says that the 'subtlest' life force -Atman is the reality and not the gross body. Gross body here is called as a local land and Soul as the bird from far!
Hence the realized soul says - I am from the foreign land my dear and not from here!

अणी देसरा लोग अचेता पल पल पर पछ्ताई भाई संतो
Ani desara log acheta pal pal par pachhtaai bhai santo
(And listen dear saints, the people from local land repent every moment)

Sufferings are experienced because one identifies his existence with the body - the gross one. And gross is bound tho undergo sufferings as it is measurable. Those who suffer will obviously repent for the experience. They will repent that they have not grown beyond bodily identification and hence are suffering!

मुख बिन गाना, पग बिन चलना, बिन पंख उड जाई हो 
Mukh bin gaana, pag bin chalana, bin pankh ud jaai ho
(one would sing without mouth, would walk without feet, and would fly without wings)

Soul is powerful. Soul is powered by supreme soul - the supreme consciousness. And this all pervasive, omnipotent force can make anything and everything happen. Bodily consciousness would limit ones power of manifestation to the the bodily organs and senses but 'soul' identity won't require bodily organs at all. Hence for such joyful creature, its possible to experience the joy of singing, wandering, flying etc just by imagination. He doesn't need to actually walk, sing or fly with the body! 
So here actually Kabir is trying to explain Vibhuti characteristics explained by Patanjali in Patanjali's Yoga Sutras. Where a realized yogi can do miracles - not for public display but as a part of his evolutionary yogic journey!

बिना मोह की सुरत हमारी, अनहद मे रम जाई हो
Bina moh ki surat humari, anahad mein ram jaai ho
(My identity is one that is unattached, who is constantly engaged in divine pursuit)

Yogi reaches the bliss of samadhi or constant 'experience of soulfulness' by non-attachment. attachments stall ones progress in spiritual evolution. Attachments keep one busy at body and mind level where disers and efforst to manifest them become core theme of life. And desires appear in chain which keep one engaged in illusionary world. Yogi on the path of 'self-realization' has to be detached and one-centered! Patanjali maharaj says that abhyasvairagyabhaym tannirodhah. the modulations of mind can be restrained by persistent self study and supreme detachment.

छाया बैठू अगनी व्यापे धूप अधिक सितलाई हो 
Chhaya baithu agani vyape, dhoop adhik sitlaai ho
(when one sits in shadow, he can feel heat of fire and in the sun, he experiences coolness)

For a ordinary human who is engrossed with various desires, even in the shadow, there will be experience of sunburn (uneasiness) or even in the sun he will feel cold - because his mind is busy, constantly working. Master yogi would rise above duality. He won't experience heat or cold as a normal human being would do. ideally he would master over the bodily experiences of heat and cold. These experiences in yogic language are called as Urmi. They actually are the food/ inspiration behind bodily being. These Urmi are hunger & thirst, heat & cold and desire & attachment. Master yogi would rise above these six urmis and attain the siddhi where he can experience cold in heat and sunburn in the shadow!

छाया धूप से सतगुरु न्यारा, मै सतगुरु के भाई 
Chhaya Dhoop se satguru nyaara, main satguru ke bhai
(Guru is unique force than the experience of duality of shadow and sun. I am with the Guru who guides to Truth!)

Experience of duality is ordinary experience. Divine truth would expand ones consciousness to an extent where the duality ends and supreme oneness pervades. Such experience is possible through a guru when one derails on the path of detachment and self study. Hence the real seeker is committed to a guru who guides one experience the truth.

आठो पहर अडक रहे आसन, कदे न उतरे शाही
Aathau pahar adak rahe asan kade na utare shahi
(All the time I ll be meditating and would experience the bliss of 'Royal Self')

During one's yogic journey - which is not result oriented but directed towards the 'wider' experience, towards experiencing the divine vastness - determination is important. consistency is important hence a yogi would be meditating / focusing on the Supreme consciousness with determination all hours of the day. The only thought in his mind is God, God and God! When this happens, it is like a royal ride -Shahi! All majestic and colorful.  

मन पवन दोनो नही पहुंचे, उन्ही देस के माही 
Man pavan dono nahi pahunche unhi des ke maahi
(When yogi establishes his one-pointedness on god, the waves of mind or power of wind can not destabilize)

When the state of samadhi, which is a constant experience of bliss, and not glimpses of it - is achieved, the seeker is firmly established in Supreme Consciousness. And then nothing can deviate him from there. In that country of supreme consciousness, mind and wind can not reach. 

निरगुण रूप है मेरे दाता, सरगुण नाम धराई 
Nirgun roop hain mere daata, sargun naam dharai
(Supreme consciousness has no form, it only takes form for a while)

The realized yogi knows that the nature of god is -formless, shapeless, tasteless - i.e. beyond senses. The 'form' or name is temporary for a less conscious being to understand. Form is just the few attributes of god that are used by seeker as -a step - to understand the wider nature of god!

कहे कबीर सुनो भाई साधो, साहब है घट माही
Kahe Kabir suno bhai sadho, sahab hain ghat maahi.
(And says Kabir, listen O' Sadhu, the Supreme Lord resides in you!)


Rangi Arwind
Kunjapuri, Rishikesh 
(Himalaya)

रविवार, 21 नवंबर 2021

पिया करबय मुकदमा.../ लोकगीत अवधी / गायिका : संजोली पाण्डेय

 https://youtu.be/bBexqdHB8NQ 

लोकगायिका संजोली पाण्डेय जन्म- अयोध्या ,उत्तर प्रदेश ,1995 अध्यक्ष ~ धरोहर -लोककलाओं का संगम (NGO) लोकगीतों और लोकविधाओं की संरक्षिका
लखनऊ की संजोली पांडेय मैनावती देवी राष्ट्रीय लोकगायिका सम्मान 2021 से सम्मानित हैं। सांसद एवं फिल्म अभिनेता रवि किशन शुक्ल की मौजूदगी में सर्वभाषा ट्रस्ट दिल्ली द्वारा आयोजित वर्चुअल कार्यक्रम में इस पुरस्कार की घोषणा की गई थी।
फैजाबाद के मया ब्लॉक के ग्राम रामापुर की बेटी संजोली पांडेय राष्ट्रीय क्षितिज पर बतौर लोकगायिका दस्तक देकर फैजाबाद के लिए गर्व का क्षण मुहैया करा रही है। उनके पिता अरविंद पांडेय लखनऊ हाईकोर्ट में वकील हैं। मां शीला पांडेय कुशल गृहिणी हैं। संजोली ने अवधी व भोजपुरी गायिका के रूप में अपनी पहचान कायम रखी है। अपनी सुरीली आवाज से लोकगीतों को बढ़ावा देने के कारण तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह व तत्कालीन राज्यपाल राम नाईक सम्मानित कर चुके हैं।
बकौल संजोली, बचपन से ही उसे गाने का शौक था। प्राथमिक व हाईस्कूल की शिक्षा गोसाईंगंज से ग्रहण करने के उपरांत परिवारीजनों ने उसके गायन की रुचि देखते हुए लखनऊ भेजा। भातखंडे विश्वविद्यालय से संगीत की शिक्षा ग्रहण की। उसने टीवी शो में बाल कलाकार के रूप में प्रतिभाग कर लोकगायन के सफर की शुरुआत की। संजोली का मानना है कि लोकगायन में भारतीय गांवों व उसकी संस्कृति की झलक मिलती है। इसलिए लोकगीतों को हमें जीवंत बनाये रखना होगा। समाज में फैली कुरीतियों जैसे भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, बेटियों की शिक्षा व किसानों की दशा पर उसे गीत गाना पंसद है। कजरी, सोहर व छठ गीत व बसंत ऋतु पर भी गाना गाने का शौक है। इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों व पर्यटन स्थलों पर गाए गए गीत सराहे जा रहे हैं। 
पिया करबय मुकदमा...

एकहु न दिहला गहनवा हो 
पिया करबय मुकदमा 

तनिको जो बोलिहें मोरे सास-ससुर जी 
मानब न एकहु कहनवा हो 
पिया करबय मुकदमा

तनिको जो बोलिहें मोरे जेठ-जेठानी 
बाँटब आपन अँगनवा हो 

पिया करबय मुकदमा 
तनिको जो बोलिहें देवर-देवरानी 

कइ देब इनका बेगनवा हो 
पिया करबय मुकदमा

एकहु न दिहला गहनवा हो 
पिया करबय मुकदमा 

शनिवार, 20 नवंबर 2021

चेत रे गुमानी फिर यो जनम ना मिलेगा.../ भजन / सन्त कबीर / गायन : गीता पराग

 https://youtu.be/9H0XU3-gFno 


साखी 

1 -सतयुग त्रेता द्वापुर, यह कलियुग अनुमान। 

 सार शब्द एक साँच है, और झूठ सब ज्ञान ॥

भजन 

चेत रे गुमानी फिर ये जन्म ना मिलेगा ।

माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥ टेक ॥ 

दस से सोलह गये खेल में , बीस गये माया कि गेल  में । 

चालीस साल तिरिया की सेज पे , पचपन नाड़ी हिलेगा ॥1 ॥


माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥

चेत रे गुमानी फिर ये जन्म ना मिलेगा ।

माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥


काली गई सफेदी आई, तन की खाल उखड़ सब जाई। 

बंदर जैसा मुँह हो जाये, डगमग नाड हिलेरे ॥2 ॥


माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥

चेत रे गुमानी फिर ये जन्म ना मिलेगा ।

माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥


तू केहता है मेरी मेरी, ये माया तेरी ना मेरी ।

धन दौलत थारा यहीं रह जावे, अग्नी के साथ जलेगा ॥3 ॥


माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥

चेत रे गुमानी फिर ये जन्म ना मिलेगा ।

माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥


भजन करेगा तो सुख पावेगा, धन दौलत थारी काम नी आवेगा ।

धन दौलत थारी यहीं रेह जावे, केहत कबीर विचारी ॥४ ॥


माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥

चेत रे गुमानी फिर ये जन्म ना मिलेगा ।

माया संग ना चले, काया संग ना चले ॥