https://youtu.be/szZrVN6UQM4
जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं
शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालम् ।
नभोनीलकायं दुरावारमायं
सुपद्मासहायं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ १॥
सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं
जगत्सन्निवासं शतादित्यभासम् ।
गदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं
हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ २॥
रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं
जलान्तर्विहारं धराभारहारम् ।
चिदानन्दरूपं मनोज्ञस्वरूपं
धृतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ३॥
जराजन्महीनं परानन्दपीनं
समाधानलीनं सदैवानवीनम् ।
जगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं
त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ४॥
कृताम्नायगानं खगाधीशयानं
विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानम् ।
स्वभक्तानुकूलं जगद्वृक्षमूलं
निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ५॥
समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं
जगद्बिम्बलेशं हृदाकाशदेशम् ।
सदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं
सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ६॥
सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं
गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठम् ।
सदा युद्धधीरं महावीरवीरं
महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ७॥
रमावामभागं तलानग्रनागं
कृताधीनयागं गतारागरागम् ।
मुनीन्द्रैः सुगीतं सुरैः सम्परीतं
गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ८॥
।।फलश्रुति ॥
इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं
पठेदष्टकं कण्ठहारं मुरारेः ।
स विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं
जराजन्मशोकं पुनर्विन्दते नो ॥ ९॥
इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं
श्रीहरिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालम् ।
नभोनीलकायं दुरावारमायं
सुपद्मासहायं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ १॥
सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं
जगत्सन्निवासं शतादित्यभासम् ।
गदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं
हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ २॥
रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं
जलान्तर्विहारं धराभारहारम् ।
चिदानन्दरूपं मनोज्ञस्वरूपं
धृतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ३॥
जराजन्महीनं परानन्दपीनं
समाधानलीनं सदैवानवीनम् ।
जगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं
त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ४॥
कृताम्नायगानं खगाधीशयानं
विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानम् ।
स्वभक्तानुकूलं जगद्वृक्षमूलं
निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ५॥
समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं
जगद्बिम्बलेशं हृदाकाशदेशम् ।
सदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं
सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ६॥
सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं
गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठम् ।
सदा युद्धधीरं महावीरवीरं
महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ७॥
रमावामभागं तलानग्रनागं
कृताधीनयागं गतारागरागम् ।
मुनीन्द्रैः सुगीतं सुरैः सम्परीतं
गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ ८॥
।।फलश्रुति ॥
इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं
पठेदष्टकं कण्ठहारं मुरारेः ।
स विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं
जराजन्मशोकं पुनर्विन्दते नो ॥ ९॥
इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं
श्रीहरिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
श्री हरि स्तोत्रं का हिन्दी अर्थ
जो समस्त जगत के रक्षक हैं, जो गले में चमकता हार पहने हुए हैं,जिनका मस्तक
शरद ऋतु में चमकते चन्द्रमा की तरह है और जो महादैत्यों के काल हैं। नभ (आकाश)
के समान जिनका रंग नीला है, जो अजेय मायावी शक्तियों के स्वामी हैं, देवी
लक्ष्मी जिनकी साथी हैं उन भगवान् विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।१।
शरद ऋतु में चमकते चन्द्रमा की तरह है और जो महादैत्यों के काल हैं। नभ (आकाश)
के समान जिनका रंग नीला है, जो अजेय मायावी शक्तियों के स्वामी हैं, देवी
लक्ष्मी जिनकी साथी हैं उन भगवान् विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।१।
जो सदा समुद्र में वास करते हैं, जिनकी मुस्कान खिले हुए पुष्प की भाँति है, जिनका
वास पूरे जगत में है, सौ सूर्यों के सामान प्रतीत होते (दिखते) हैं। जो गदा, चक्र और
शस्त्र धारण करते हैं, जो पीले वस्त्रों में सुशोभित हैं, जिनके सुन्दर चेहरे पर
प्यारी मुस्कान है, उन भगवान् विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।२।
जिनके गले के हार में देवी लक्ष्मी का चिन्ह बना हुआ है, जो वेद वाणी के सार हैं, जो
जल में विहार करते हैं और पृथ्वी के भार को धारण करते हैं। जिनका सदा आनंदमय
रूप रहता है और मन को आकर्षित करता है, जिन्होंने अनेकों रूप धारण किये हैं,
उन भगवान् विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।३।
जो जन्म और उम्र से मुक्त हैं, जो परमानन्द से भरे हुए हैं, जिनका मन सदैव स्थिर
और शांत रहता है, जो हमेशा नवीन (नये) प्रतीत होते हैं। जो इस जगत के जन्म के
कारक हैं, देवताओं की सेना के रक्षक हैं और तीनों लोकों के बीच सेतु हैं, उन भगवान्
विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।४।
जो वेदों के गायक हैं, पक्षीराज गरुड़ की जो सवारी करते हैं, जो मुक्तिदाता हैं और
शत्रुओं का जो मान हरते हैं। जो अपने भक्तों के प्रिय हैं, जो जगत रुपी वृक्ष की
जड़ हैं, जो सभी दुखों को निरस्त (ख़त्म) कर देते हैं, उन भगवान् विष्णु को मैं
बारम्बार भजता हूँ।५।
जो सभी देवों के स्वामी हैं, काली मधु मक्खी के समान जिनके केश (बालों) का
रंग है, पृथ्वी जिनके शरीर का हिस्सा है और जिनका शरीर आकाश के समान
स्पष्ट है। जिनकी देह (शरीर) सदा दिव्य है, जो संसार के बंधनों से मुक्त हैं,
बैकुंठ जिनका निवास है, उन भगवान् विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।६।
जो सुरों (देवताओं) में सबसे बलशाली हैं, त्रिलोकों में सबसे श्रेष्ठ हैं, जिनका
एक ही स्वरुप है (परमात्मा या परब्रह्म रूप)। जो युद्ध में सदा वीर हैं, जो
महावीरों में भी वीर हैं, जो सागर के किनारे पर वास करते हैं, उन भगवान्
विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।७।
जिनके वाम (बाएं) भाग में लक्ष्मी विराजित होती हैं, जो नग्न नाग पर विराजित
हैं, जो यज्ञों से प्राप्त किये जा सकते हैं और जो राग-रंग से मुक्त हैं। ऋषि-मुनि
जिनके गीत गाते हैं, देवता जिनकी सेवा करते हैं और जो गुणों से परे हैं, उन
भगवान् विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।८।
फलश्रुति
भगवान हरि का यह अष्टक जो कि मुरारी के कंठ की माला के समान है, जो
भी इसे सच्चे मन से पढता है वह वैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है। वह दुःख,
शोक, जन्म-मरण से मुक्त होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।
भगवान हरि का यह अष्टक जो कि मुरारी के कंठ की माला के समान है, जो
भी इसे सच्चे मन से पढता है वह वैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है। वह दुःख,
शोक, जन्म-मरण से मुक्त होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।
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