शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

परेशाँ हो के मेरी ख़ाक.../ अल्लामा इक़बाल /गायन : सनम मारवी

https://youtu.be/vFfQWHtYhRk

परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल बन जाए

जो मुश्किल अब है या रब फिर वही मुश्किल बन जाए

कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िरदौस में हूरें

मिरा सोज़-ए-दरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल बन जाए

कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को

खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल बन जाए

बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैदा-कराँ मुझ को

ये मेरी ख़ुद-निगह-दारी मिरा साहिल बन जाए

कहीं इस आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू में भी तलब मेरी

वही अफ़्साना-ए-दुंबाला-ए-महमिल बन जाए

उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं

कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल बन जाए

शब्दार्थ
ख़ाक - धूल, मिटटी का पुतला यानी मनुष्य

मजबूर-ए-नवाँ - कहने पर मजबूर /फ़िरदौस - स्वर्ग /हूरें - अप्सराएं /
सोज़-ए-दरूँ - आतंरिक वेदना /गर्मी-ए-महफ़िल - महफ़िल की गर्माहट
दरिया-ए-ना-पैदा-कराँ - तट हीन नदी /ख़ुद-निगह-दारी - आत्म निरीक्षण
साहिल - तट /आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू - रंग-गंध हीन दुनिया /तलब - इच्छा
अफ़्साना-ए-दुंबाला-ए-महमिल - ऊँटों के पालकी वाली कहानी
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी - मनुष्य की मिटटी के उत्कर्ष /
अंजुम - सितारे
मह-ए-क़ामिल - पूर्ण चन्द्र

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