https://youtu.be/FsDT_N_CUZg
गंगा स्तुति - विनय पत्रिका - तुलसी दास
पंडित छन्नू लाल मिश्र : राग यमन
गंगा स्तुति
जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि - चय चकोर - चन्दिनि,
नर - नाग - बिबुध - बन्दिनि जय जह्नु बालिका ।
बिस्नु - पद - सरोजजासि, ईस - सीसपर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप - छालिका ॥१॥
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप - हारि,
भँवर बर बिभंगतर तरंग - मालिका ।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव - भार, भक्ति - कल्पथालिका ॥२॥
निज तटबासी बिहंग, जल - थर - चर पसु - पतंग,
कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका ।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस - बीर,
बिचरत मति देहि मोह - महिष - कालिका ॥३॥
भावार्थः--
हे भगीरथनन्दिनि ! तुम्हारी जय हो, जय हो । तुम मुनियोंके
समूहरुपी चकोरोंके लिये चन्द्रिकारुप हो । मनुष्य, नाग और देवता तुम्हारी
वन्दना करते हैं । हे जह्नुकी पुत्री ! तुम्हारी जय हो । तुम भगवान् विष्णुके
चरणकमलसे उत्पन्न हुई हो; शिवजीके मस्तकपर शोभा पाती हो; स्वर्ग,
भूमि और पाताल - इन तीन मार्गोंसे तीन धाराओंमें होकर बहती हो ।
पुण्योंकी राशि और पापोंको धोनेवाली हो ॥१॥
तुम अगाध निर्मल जलको धारण किये हो, वह जल शीतल और तीनों
तापोंका हरनेवाला है । तुम सुन्दर भँवर और अति चंचल तरंगोंकी
माला धारण किये हो । नगर - निवासियोंने पूजाके समय जो सामग्रियाँ
भेट चढ़ायी हैं उनसे तुम्हारी चन्द्रमाके समान धवल धारा शोभित हो
रही हैं । वह धारा संसारके जन्म - मरणरुप भारको नाश करनेवाली
तथा भक्तिरुपी कल्पवृक्षकी रक्षाके लिये थाल्हारुप है ॥२॥
तुम अपने तीरपर रहनेवाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग, कीट और
जटाधारी तपस्वी आदि सबका समानभावसे पालन करती हो । हे मोहरुपी
महिषासुरको मारनेके लिये कालिकारुप गंगाजी ! मुझ तुलसीदासको ऐसी
बुद्धि दो कि जिससे वह श्रीरघुनाथजीका स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीरपर
विचरा करे ॥३॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें