अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो.../ नज़्म : ऐतिराफ़ / असरार-उल-हक़ मजाज़ (१९११-१९५५) / जगजीत सिंह (१९४१-२०११)
https://youtu.be/D-Q2i2h0src
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई होमैंने माना कि तुम एक पैकर-ए-रानाई होचमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन-आराई होतल’अत-ए-मेहर हो, फिरदौस की बरनाई होबिन्त-ए-महताब हो, गर्दूं से उतर आई हो(पैकर-ए-रानाई = साकार सौंदर्य),
(चमन-ए-दहर = संसार रुपी वाटिका/ बगीचा),
(रूह-ए-चमन-आराई = वाटिका को सजाने वाली आत्मा),
(तल’अत-ए-मेहर = सूर्य की चमक),
(फिरदौस की बरनाई = स्वर्ग की जवानी),
(बिन्त-ए-महताब = चाँद की बेटी),
(गर्दूं = आकाश)मुझ से मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई हैमैंने ख़ुद अपने किए की ये सज़ा पाई है(अंदेशा-ए-रुसवाई = बदनामी का अंदेशा)उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी थासर पे सरशारी-ओ-इशरत का जुनूँ तारी थामाहपारों से मुहब्बत का जुनूँ तारी थाशहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था(जुनूँ तारी था = उन्माद छाया था),
(सरशारी-ओ-इशरत = सुख-भोग),
(माहपारों से = चाँद के टुकड़ों (सुंदरियों) से ),
(शहरयारों से = शहर के मालिकों से),
(रक़ाबत = प्रतिद्वंदिता)बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरीएक रंगीन-ओ-हसीं ख़्वाब थी दुनिया मेरी(बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब = मुलायम खाल और मखमल का बिस्तर)क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकारमेरी फरियाद-ए-जिगर दोज़, मेरा नाला-ए-ज़ारशिद्दत-ए-कर्ब में डूबी हुयी मेरी गुफ़्तारमैं कि ख़ुद अपने मज़ाक-ए-तरब आगीं का शिकार(मजरूह = घायल),
(फरियाद-ए-जिगर दोज़ = दिल तोड़ने वाली फ़रियाद),
(नाला-ए-ज़ार = दुःख भरा आर्तनाद),
(शिद्दत-ए-कर्ब = तीव्र पीड़ा),
(गुफ़्तार = बात-चीत),
(मज़ाक-ए-तरब आगीं = प्रसन्न हृदयता की अभिरुचि)वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँअब मैं वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ(गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम = मृत ह्रदय की मृदुलता),
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