https://youtu.be/CattANui0AI
कभी आह लब पे मचल गयी...
शायर : रशीद क़ामिल
गायन : ग़ुलाम अली
कभी आह लब पे मचल गई कभी अश्क़ आँख से ढल गये
वो तुम्हारे ग़म के चराग़ हैं कभी बुझ गये कभी जल गये
मैं ख़याल-ओ-ख़्वाब की महफ़िलें न ब-कद्र-ए-शौक़ सजा सका
तेरी इक नज़र के साथ ही मेरे सब इरादे बदल गये
कभी रंग में कभी रूप में कभी छाँव में कभी धूप में
कहीं आफ़ताब-ए-नज़र हैं वो कभी माहताब में ढल गये
जो फ़ना हुये ग़म-ए-इश्क़ में उन्हें ज़िंदगी का न ग़म हु
जो न अपनी आग में जल सके वो पराई आग में जल गये
था उन्हें भी मेरी तरह जुनूँ तो फिर उनमें मुझमें ये फ़र्क़ क्यूँ
मैं गिरफ़्त-ए-ग़म से न बच सका वो हुदूद-ए-ग़म से निकल गये
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