सोमवार, 19 दिसंबर 2022

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे.../ क़लाम : शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ (१७९०-१८५४ ) / गायन : उस्ताद ग़ुलाम अब्बास ख़ान

 https://youtu.be/F2_HA7-Zqrw


शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का जन्म दिल्ली में 1790 में हुआ था। 
जौक अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के उस्ताद थे। 
मिर्जा गालिब से इनकी प्रतिद्वंदिता जगप्रसिद्ध है। 
इनका निधन 1854 में हुआ।

USTAD GHULAM ABBAS KHAN 

(RAMPUR-SAHASWAN GHARANA)

One of the prominent vocalists, Ghulam Abbas Khan belongs 
to the Rampur-Sahaswan Gharana which owes its allegiance 
to Tansen’s tradition. He was initiated into music at a tender age 
by his grandfather, the late Ustad Ghulam Jafar Khan, a well 
known sarangi player of India. Later he continued his training 
under the guidance of his father Padma Shri Ustad Ghulam Sadiq 
Khan, a classical vocalist of international repute. Ghulam Abbas 
Khan hails from the renowned family of musicians, his maternal 
grandfather being one of the great classical vocalists of India, 
late Ustad Mushtaq Husain Khan, who was the first recipient of 
the Padma Bhushan Award. Gifted with a sonorous and mellifluous 
voice, Ghulam Abbas Khan sings classical khayal, ghazals, thumri, 
dadra, Sufi, folk, and bhajans with equal ease. He is popular not 
only for his phenomenal performances at music festivals and 
concerts in India but also in countries like UK, Australia, Japan, 
Singapore, Hong Kong, China, Indonesia, Malaysia, Mauritius, 
Thailand, Pakistan, Afghanistan, Saudi Arabia, U.A.E., and Oman.

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

मर के भी चैन पाया तो किधर जाएँगे

तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की

तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे

ख़ाली चारागरो होंगे बहुत मरहम-दाँ

पर मिरे ज़ख़्म नहीं ऐसे कि भर जाएँगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक क्यूँ कर हम

पहले जब तक दो आलम से गुज़र जाएँगे

शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ

पर मुझे डर है कि वो देख के डर जाएँगे

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर

बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे

आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी पानी

जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जाएँगे

नहीं पाएगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़

हम जहाँ से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

सामने चश्म-ए-गुहर-बार के कह दो दरिया

चढ़ के गर आए तो नज़रों से उतर जाएँगे

लाए जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें

और अगर कुछ नहीं दो फूल तो धर जाएँगे

रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम

मेहर-ओ-माह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे

हम भी देखेंगे कोई अहल-ए-नज़र है कि नहीं

याँ से जब हम रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला

उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे


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