नम्रतया हि देवत्वम् ...
एकदा तटिनी मुग्धा
सञ्जाता दम्भिनी पुरा।
प्रचण्डेन प्रवाहेण
किञ्चिदपि करोम्यहम्।।(१)
सञ्जाता दम्भिनी पुरा।
प्रचण्डेन प्रवाहेण
किञ्चिदपि करोम्यहम्।।(१)
तेज प्रवाह से कुछ भी कर सकती है।
गृहं गिरिं तरुञ्चापि
पशूंश्च मानवाँस्तथा।
अग्रे चाग्रे करिष्यामि
सबला प्रबला यतः।।(२)
क्योंकि मैं बहुत बलवान हूं, इसलिए घर, पहाड़, नदी, पशु,
मनुष्य सभी को बहा कर ले जा सकती हूं।
आज्ञां विधेहि हे सिन्धो
किं ते शुभं मया प्रभो!
ज्ञात्वाभिमानमेतस्याः
रत्नाकरो जगाद ह।।(३)
वह बोली - हे समुद्र देव ! कहो मैं आप के लिए क्या कर सकती हूं ?
नदी के अभिमान को देखकर समुद्र ने कहा -
भवनं प्राणिनं चापि
नेच्छामि पादपं तथा।
दूर्वाङ्कुराणि मुग्धेऽहं
याचे त्वत्तो विशेषतः।।(४)
मुझे भवन, प्राणी अथवा पेड़ की इच्छा नहीं है। भोली ! मैं तो विशेष
रूप से आप से दूर्वादल चाहता हूं।
उच्चैर्विहस्य सैषा हि
प्रोक्तवती पयोनिधिम्।
अतीव सुकरं कार्य-
मेतदपांपते ध्रुवम्।।(५)
नदी जोर से हंस कर सागर से बोली - हे समुद्र देव ! ये तो बड़ा आसान
काम है।
पूर्णेनैव हि वेगेन
यत्नो विधीयते तया।
असमर्था तथापि सा
तद्दूर्वोत्पाटने खलु।।(६)
नदी ने अपने पूरे वेग के साथ प्रयास किया परन्तु वह दूर्वा उखाड़ने में
सफल नही हुई।
असफला तथान्ते सा
सिन्धुमुक्तवती वरा।
अतीव दुष्करं कार्यं
क्षमस्व मामपांपते।।(७)
अन्त में हारकर वह समुद्र से बोली - हे समुद्र देव !मुझे क्षमा करना।
यह तो बहुत कठिन काम है।
जगति कर्कशा ये च
भवनं गिरिपादपाः।
सुकरं नाशनं तेषां
नदीमुवाच तोयधिः।।(८)
तब समुद्र ने नदी से कहा कि संसार में जो पहाड़ और पेड़ आदि
कठोर होते हैं, वे आसानी से नष्ट हो जाते हैं।
विनम्राः मानवा लोके
नमन्ति ये तृणादिवत्।
रक्षणं जायते तेषां
विपदो यान्ति दूरतः।।(९)
संसार में जो दूर्वादल की तरह झुक जाते हैं, वे सुरक्षित रहते हैं।
विपत्तियां उनसे दूर रहती हैं।
नम्रतया हि देवत्वं
प्राप्यते पुरुषैः भुवि।
देवाः गर्वातिरेकेण
श्रिया हीनाः न संशयः।।(१०)
इस संसार में विनम्रता से मनुष्य देवता बन जाता है और अभिमान
होने पर देवताओं का तेज भी नष्ट हो जाता है।
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