सोमवार, 23 मार्च 2020

सैंया निकस गए मैं ना लड़ी थी... / कबीर दास की पुत्री 'कमाली' की रचना / कौशिकी चक्रवर्ती

https://youtu.be/IVYF_h2XOeA
स्वर : कौशिकी चक्रवर्ती 

सैंया निकस गए मैं ना लड़ी थी... 
रंग महल के दस दरवाज़े, 
ना जानूँ कोई  खिड़की खुली थी..."

यह संत कबीर दास की पुत्री 'कमाली' की रचना है। जिसमें 'रंग महल' का अर्थ है हमारा 
शरीर और 'दस दरवाज़ों' से अर्थ है शरीर के वे दस मार्ग जिनसे प्राणों का निकलना माना 
जाता है। 
जनसामान्य को ध्यान में रखते हुए रचनाएँ ऐसी ही बनाई जाती थीं, जिनका सामान्य 
अर्थ कुछ ऐसा होता था कि सबको रुचिकर लगे लेकिन वास्तविक अर्थ किसी न किसी 
दर्शन अथवा भक्ति से संबंधित होता था।

सैयां निकस गए मैं न लड़ी थी। 

न मैं बोली न मैं चाली,
तान दुपट्टा सोई पड़ी थी। 

पाँच सखी मोरी संग की सहेली, 
इनसे पूछो मैं कुछ न कही थी। 

रंगमहल के दस दरवाज़े,
ना जानूँ कोई खिड़की खुली थी। 

कहत 'कमाली' कबीर की बेटी,
इस ब्याही से तो कुँवारी भली थी।। 
                      *

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