शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

पंथ होने दो अपरिचित... / रचना : महादेवी वर्मा / गायन : संजय द्विवेदी एवं ज्ञानेश्वरी द्विवेदी

 https://youtu.be/qhAL9lm6nUQ  


पंथ होने दो अपरिचित  सहित 

पंथ होने दो अपरिचित

प्राण रहने दो अकेला !


घेर ले छाया अमा बन,


आज कज्जल-अश्रुओं में

रिमझिमा ले यह घिरा घन;


और होंगे नयन सूखे,


तिल बुझे औ, पलक रूखे,


आर्द्र चितवन में यहाँ


शत विद्युतों में दीप खेला !

अन्य होंगे चरण हारे,


और हैं जो लौटते,

दे शूल को संकल्प सारे;


दुखव्रती निर्माण उन्मद,


यह अमरता नापते पद,


बाँध देंगे अंक-संसृति
से

तिमिर में स्वर्ण बेला!

दूसरी होगी कहानी,


शून्य में जिसके मिटे स्वर,

धूलि में खोई निशानी,


आज जिस पर प्रलय विस्मित,


मैं लगाती चल रही नित,


मोतियों की हाट औ,


चिनगारियों का एक मेला !

हास का मधु-दूत भेजो,


रोष की भ्रू-भंगिमा

पतझार को चाहे सहेजो !


ले मिलेगा उर अचंचल,


वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,


जान लो, वह मिलन

एकाकी
विरह में है दुकेला !

पंथ होने दो अपरिचित

प्राण रहने दो अकेला !

भावार्थ 
यह कविता महादेवी वर्मा जी के प्रमुख काव्य-संग्रह ‘दीपशिखा’ में ‘गीत-2’ शीर्षक से संकलित है। 

१ पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!
   घेर ले छाया अमा बन,
   आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले वह घिरा घन;
   और होंगे नयन सूखे,
   तिल बुझे औ पलक रूखे,
   आर्द्र चितवन में यहाँ
   शत विद्युतों में दीप खेला!

व्याख्या कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि भले ही साधना-पथ
अनजान हो, उस मार्ग पर तुम्हारा साथ देने वाला भी कोई न हो, तब भी तुम्हें घबराना नहीं चाहिए, तुम्हारी स्थिति डगमगानी नहीं चाहिए। महादेवी जी कहती हैं कि मेरी छाया भले ही आज मुझे अमावस्या के गहन अन्धकार के समान घेर ले और मेरी काजल लगी आँखें भले ही बादलों के समान आँसुओं की वर्षा करने लगें, फिर भी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कठिनाइयों को देखकर जो आँखें सूख जाती हैं, जिन आँखों के तारे निर्जीव व धुंधले हो जाते हैं और निरन्तर, रोते रहने के कारण जिन आँखों की पलकें रूखी-सी हो जाती हैं, वे किसी और की होंगी। मैं उनमें से नहीं हूँ जो विघ्न-बाधाओं से घबरा जाऊँ। अनेक कष्टों के आने पर भी मेरी दृष्टि आर्द्र (गीली) अर्थात आँखों में आँसू रहेंगे ही, क्योंकि मेरे जीवन दीपों ने सैकड़ों विद्यतों में खेलना सीखा है। कष्टों से घबराकर पीछे हट जाना मेरे जीवन-दीप का स्वभाव नहीं है।

२ अन्य होंगे चरण हारे,
  और हैं जो लौटते, दे शूल की संकल्प सारे;
  दु:खव्रती निर्माण उन्मद
  यह अमरता नापते पद,
  बाँध देंगे अंक-संसृति
  से तिमिर में स्वर्ण बेला!

व्याख्या कवयित्री कहती हैं कि वे कोई अन्य ही चरण होंगे जो पराजय मानकर राह के काँटों को अपना सम्पूर्ण संकल्प समर्पित करके निराश व हताश होकर लौट आते हैं। मेरे चरण हताश व निराश नहीं हैं। मेरे चरणों ने तो दुःख सहने का व्रत धारण किया हुआ है। मेरे चरण नव निर्माण करने की इच्छा के कारण उन्मद (मस्ती) हो चुके हैं। वे स्वयं को अमर मानकर, प्रिय के पथ को निरन्तरता से नाप रहे हैं और इस प्रकार दूरी घटती चली जा रही
है, जो मेरे और मेरे लक्ष्य अर्थात आत्मा और परमात्मा के मध्य की दूरी थी।

मेरे चरण तो ऐसे हैं कि वे अपनी दृढ़ता से संसार की गोद में छाए हुए। अन्धेरे को स्वर्णिम प्रकाश में बदल देंगे अर्थात् निराशा का अन्धकार आशारूपी प्रकाश में परिवर्तित हो जाएगा। इस प्रकार लक्ष्य प्राप्ति हो सकेगी।

 ३  दूसरी होगी कहानी,
    शून्य में जिसके मिटे स्वर, 
    धूलि में खोई निशानी,
    आज जिस पर प्रलय विस्मित,
    मैं लगाती चल रही नित,
    मोतियों की हाट औ
    चिनगारियों का एक मेला!

व्याख्या कवयित्री कहती हैं कि वह कोई दूसरी कहानी होगी, जिसमें अपने लक्ष्य को प्राप्त किए बिना ही प्रिय के स्वर शान्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों के पैरों के चिह्नों को समय मिटा देता है। ऐसे लोगों का जीवन तो व्यर्थ ही होता है, मेरी कहानी तो इसके विपरीत है। मैं जब तक अपने लक्ष्य अर्थात् परमात्मा को प्राप्त न कर लूँगी, तब तक मेरा साधना स्वर शान्त नहीं होगा। साधना के इस कठिन पथ पर मेरा चलना भी अनजाना नहीं होगा। वह कहती है कि मैं अपने दृढ निश्चय अर्थात अपने संकल्प से अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा उस पथ पर ऐसे पद चिह्नों का निर्माण कर जाऊँगी, जिन्हें मिटाना समय की धूल के लिए भी दुष्कर होगा। मैं अपने संकल्प से उस
परमात्मा को प्राप्त करके ही रहूँगी। मेरे इस निश्चय से स्वयं प्रलय भी आश्चर्यचकित है। उस प्रियतम परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मैं अपने मोतियों के समान आँसूओं के खजाने का घर अर्थात् बाजार लगा रही हूँ। इन मोती जैसे आँसूओं की चमक मेरे जैसे अन्य साधकों में भी ईश्वर प्राप्ति की चिंगारियाँ अर्थात अलख जगा देगी जिससे वे भी ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाएँगे।

४ हास का मधु दूत भेजो,
   रोष की भ्र-भंगिमा पतझार को चाहे सहेजो।
   ले मिलेगा उर अंचचल,
   वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,
   जान लो वह मिलन एकाकी
   विरह में है दुकेला!
   पंथ होने दो अपरिचित 
   प्राण रहने दो अकेला!।

व्याख्या कवयित्री कहती हैं कि हे प्रिय! तुम मुझे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए चाहे मुस्कानरूपी दूत भेजो या फिर क्रोधित होकर मेरे जीवन में पतझड़-सी नीरवता का संचार कर दो अर्थात् चाहे तुम मुझ से प्रसन्न हो जाओ या अप्रसन्न, किन्तु मेरे हृदय के प्रदेश में तुम्हारे लिए कोमल भावनाएँ बनी रहेंगी। मैं अपने हृदय की मधुर और कोमल भावनाओं से सिक्त वेदना के जल और स्वप्नों का कमल पुष्प लिए तुम्हारी सेवा में सदैव उपस्थित रहूँगी। मैं तुम्हें अवश्य प्राप्त कर लूंगी। हे प्रिय तुमसे मिलने के उपरान्त मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व । समाप्त हो जाता है, मुझे तुमसे पृथक् स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता की अनुभूति नहीं होती, किन्तु वियोग की स्थिति में यह अनुभूति और अधिक बढ़ जाती है। है। प्रियतम! यद्यपि तुम्हें प्राप्त करने का मार्ग अत्यन्त कठिन और अपरिचित है, किन्तु मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि मैं तुम्हें अपने दृढ संकल्प से अवश्य प्राप्त कर लूँगी।

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