शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी.../ नसीर तुराबी / गायन : ज़ायरा अली

https://youtu.be/QOsFnzW4EMY  


वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी

न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी

मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी

किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी

कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी

अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख 'नसीर'
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी 

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